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समाचार दान
पूज्य आचार्यश्री विद्यानन्द जी द्वारा मयूर विहार दिल्ली में भारी धर्म-प्रभावना
परमपूज्य आचार्यश्री विद्यानन्द जी मुनिराज ने कहा "माला जपना, स्वाध्याय करना, पूजा करना, इन सभी क्रियाओं का ध्येय आत्मा को पवित्र कर मुक्ति प्राप्त करना है। इन क्रियाओं के पीछे यदि सांसारिक लालसायें हैं, तो धर्म संकीर्ण व संकुचित हो जाता है। मनुष्य के जीवन में सब वैभव पर धर्म व शान्ति न हो, तो वह जीवन शुष्क है; निष्प्रयोजन है, वह पशुवत् है। कोई भी तत्त्वचर्चा, धर्मध्यान की विधि बताने में सहायक हो सकती है, पर एकाग्र स्वयं को ही होना होगा। स्वयं के कर्म स्वयं को ही तप, साधना एवं एकाग्रता द्वारा नष्ट करने होंगे। परमात्मा किसी के कर्मों को नष्ट नहीं कर सकता। ' आत्मशान्ति के लिए धर्म ही एक मार्ग है, साधन है, उपकरण है। जैसे पानी से प्यास बुझती है, वैसे ही आत्म-चिन्तन से आत्मा को शान्ति प्राप्त होती है। भौतिक पदार्थ शांतिदायक नहीं हैं। धर्म का यथार्थस्वरूप मनुष्य को मनुष्य से जोड़ता है। जब धर्म में विकृतियाँ आ जाती हैं, तो वह तोड़ता है। वीतराग-धर्म ही सच्चा-धर्म है। इसको जीवन में उतारनेवाला ही धर्मात्मा है।"
पूज्य आचार्यश्री ने आगे कहा “त्याग में ही. शान्ति है। जो त्यागता है, उसी की पूजा होती है। संग्रह से परिग्रह बढ़ता है, और परिग्रह दु:ख का कारण है। आदिनाथ से महावीर तक सभी तीर्थंकरों की पूजा त्याग से ही हुई है। बाहुबली ने भरत चक्रवर्ती को जीता और उसको राज्य लौटा दिया। राम ने रावण को जीता और उसको लौटा दिया। भारतीय संस्कृति और परम्परा ही त्यागमय है। गाँधीजी त्यागते गए और महात्मा बन गए।"
उपरोक्त विचार पूज्य आचार्यश्री ने मयूर विहार फेस-1 दिल्ली में तीन-दिवसीय प्रवास के मध्य .चार धर्मसभाओं को सम्बोधित करते हुए व्यक्त किये। दो मंगल प्रवचन श्री ऋषभदेव दिगम्बर जैन मन्दिर, एक वर्धमान अपार्टमेन्ट और एक मनू अपार्टमेन्ट में आयोजित किये गये। धर्मसभा में क्षेत्रीय विधायक श्री ब्रह्मपाल, श्री सतीश जैन निगम पार्षद, कर्नाटक के विद्वान् डॉ० सट्टर, पं० जयकुमार उपाध्ये, डॉ० वीरसागर जैन आदि ने आचार्यश्री को विनयांजलि अर्पित की। अतिथियों को महामंत्री ने स्मृति-चिह्न भेंटकर सम्मानित किया। श्री सतीश जैन (आकाशवाणी) एवं श्री प्रताप जैन ने धर्मसभाओं का संचालन किया।
-गजेन्द्र कुमार जैन, दिल्ली **
प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2001
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