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की भक्ति, रात्रिभोजनत्याग की एवं जल छानने की उपयोगिता दिखाई गई हो। 7. जिसमें जैनधर्म का मूल तत्त्वज्ञान, भगवान् की वीतरागता सर्वज्ञता एवं विश्व-व्यवस्था
का परिचय हो। जिसमें निश्चय-व्यवहार की यथार्थ संधि हो, ऐसा साहित्य प्रकाशित
करना। क्योंकि तत्त्वज्ञान के बिना सभी ज्ञान अज्ञानमय संसार का ही कारण है। 8. जिनागम की वाचना एवं धार्मिक शिक्षण शिविर का आयोजन कराकर धर्मप्रचार कर
सकते हैं। धर्म-महिमा .. कहा भी है
जिनधर्म-विनिर्मुक्तो माभूवं चक्रवर्त्यपि।
स्याद् चेटोऽपि दरिद्रोपि जिनधर्मानुवासितम् ।। -(जिनेन्द्र स्तुति) अर्थ:- जैनधर्म (तत्त्वज्ञान) शून्य चक्रवर्ती का पद भी नरकादि गति का कारण बनता है। यदि दुःखी दरिद्री भी तत्त्वज्ञानी हो, तो वह उस अवस्था में भी सुखी है। जैनधर्म की महिमा गाते हुए कवि कहता है
महापापप्रकृर्तोऽपि प्राणी. श्रीजैनधर्मतः।
भवेत् त्रैलोक्य-संपूज्यो धर्मात् किं भो परं सुखम् ।। अर्थ:-- पापी से पापी व्यक्ति भी जैनधर्म की शरण में आकर त्रिलोक पूज्य परमात्मा बन जाता है। धर्म से बढ़कर दूसरा कौन सुखदायी हो सकता है। अंतिम विनय
अत: सब विद्वान् मिलकर जैनधर्म की ध्वजा को विश्वांगण में फहरायें और जैनत्व की महिमा बढ़ायें। विद्वत्ता पाने का यही सार्थक प्रयोग है।
आपस में मतभेद हो सकते हैं; किन्तु विद्वानों में मनभेद, एक-दूसरे के प्रति घृणा और द्वेषभाव और नीचा दिखाने की भावना विद्वत्ता नहीं है। ये पर्यायों की क्षणिक भूल समय पाकर दूर हो सकती है। पर्यायों के भीतर कारण परमात्मा बैठा है, वह तो शाश्वत एक-सा सभी में है। उसकी दृष्टि से सब बैर-विरोध समाप्त हो जायेंगे। अत: आओ ज्ञान की गंगा में स्नान कर विद्वत्ता को यथार्थ करें। इसी शुभ भावना के साथ आप सबसे विनय है।
नंद्यावर्त आदि शुभ-चिन "सिरिवच्छ-कलस-संख-सोत्थिय-णंदावत्तादीणि संठाणाणि णादव्वाणि ।"
-(आचार्य धरसेन, छक्खण्डागम, 13-58. पृ0 296) __ यानि – श्रीवत्स, जलभरा हुआ कलश (कुम्भ), दक्षिणावर्त शंख, स्वस्तिक और | नंद्यावर्त आदि आकार 'शुभ-चिह्न' के रूप में जानने योग्य है। |'. स्वस्तिक अर्थात् स्वका अस्तित्व स्वीकारना आस्तिक-रचना का लक्षण है। ..
प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2001
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