Book Title: Prakrit Vidya 2001 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 91
________________ व्यवहारप्रधान कथन मिलेगा। निश्चयनय वस्तु के शाश्वत-स्वभाव को बतलाया है, तो व्यवहारनय भेद और संयोगों का ज्ञान कराता है। श्रद्धान और ध्यान शाश्वत-स्वभाव में अपनत्व स्थापित कर किया जाता है। ज्ञान, भेद और संयोगों का भी किया जाता है। किन्तु जो ज्ञान भेदों के द्वारा अभेद को और संयोगों का ज्ञान करके असंयोगी का ज्ञान करता है, वह ज्ञान सम्यग्ज्ञान है; और जो ज्ञान के भेदों में और संयोगों में स्वत्व स्थापित कर इनमें ही अटककर रह जाता है, वह ज्ञान विपरीतज्ञान है। इसीलिए व्यवहार को हेय (त्याज्य) कहा है। जैसे सीढ़ियों का ज्ञान भी करना है, और छोड़ना भी है। लक्ष्य में ऊपर की मंजिल पर पहुँचना है। अत: आत्महितार्थ वस्तुस्वरूप समझने के लिए ज्ञान दोनों नयों का करना है; किन्तु श्रद्धान और ध्यान शाश्वत-स्वरूप का ही किया जाता है। इसलिये आचार्यप्रवर कुंदकुंद ने निर्देश दिया है एवं ववहारणओ पडिसिद्धो जाण णिच्छयणएण। __ णिच्छयणयासिदा पुण मुणिणो पावंति णिव्वाणं ।। -(समयसार 272) अर्थ:- व्यवहारनय निश्चयनय के द्वारा निषिद्ध है; क्योंकि निश्चयनयाश्रित मुनि ही निर्वाण को पाते हैं। अर्थ:-- अत: दोनों नयों का ज्ञान करना आवश्यक है, क्योंकि दोनों ही सम्यग्ज्ञान के भेद हैं। किन्तु व्यवहार मात्र ज्ञेय है, निश्चयनय ज्ञेय भी है और उपादेय भी है। आचार्य अमृतचंद ने एक यह गाथा उद्धृत की है जदि जिणमदं पवज्जह ता मा ववहारणिच्छए मुणह। ऍक्केण विणा छिज्जदि तित्थं अण्णेण पुण तच्चं ।। अर्थ:- यदि जिनमार्ग में प्रवर्तन करना चाहते हो, तो निश्चय-व्यवहार में से एक को भी मत छोड़ो; क्योंकि व्यवहार के बिना तीर्थ का लोप हो जायेगा और निश्चय के बिना वस्तुस्वरूप का लोप हो जायेगा। __ व्यवहार की दृष्टि तो अनादिकाल से है, इसलिये ऐसे जीव को व्यवहारमूढ कहा है। क्योंकि वह व्यवहार के ज्ञान का प्रयोजन ही नहीं जानता है। व्यवहारनय वही सच्चा व्यवहार है, जो निश्चयनय के ज्ञान की ओर जाने का संकेत कर रहा हो। ये दोनों नय प्रमाणज्ञान (सम्यग्ज्ञान) के अंश हैं। इनका काम वस्तु पर प्रकाश डालना है। ये स्वयं वस्तु नहीं है । ये तो दीपक का काम करते हैं। दीपक वस्तु को प्रकाशित करता है। दीपक स्वयं प्रकाशित वस्तुस्वरूप नहीं है। अत: नयों का यथार्थ ज्ञान होना आवश्यक है। माइल्ल धवल ने अपने 'नयचक्र' में कहा है जे णयदिट्ठिविहीणा ताण ण वत्थुसहाव-उवलद्धि। वत्थुसहाव-विहूणा सम्मादिट्ठी कहं हुंति।। -(नयचक्र 181) अर्थ.- जो व्यक्ति नय के यथार्थस्वरूप को नहीं जानते हैं, उनको वस्तुस्वरूप का यथार्थज्ञान प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2001 1089

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