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वा अन्यान्य लोकनिंद्य पापरूप कार्य तिनिकौं करते प्रत्यक्ष देखिये है। बहुरि जिनबिम्ब शास्त्रादिक सर्वोत्कृष्ट पूज्य तिनका सौ अविनय करै है। बहुरि आप तिनतें भी महंतता राखि ऊँचा बैठना आदि प्रवृति कौं धारे हैं। इत्यादि अनेक विपरीतिता प्रात्यक्ष भासै पर आपकौं मुनि मानें, मूलगुणादिक के धारक कहावै । ऐसे ही अपनी महिमा करावें । बहुरि गृहस्थ भोले, उनकरि प्रशंसादिक करि ठिगे हुए धर्म का विचार करें नाहीं? उनकी भक्ति-विक्षं तत्पर हो हैं। सो बड़े पापकौं बड़ा धर्म मानना, इस मिथ्यात्व का फल कैसे अनन्त-संसार न होय । एक जिनवचनकौ अन्यथा माने महापापी होना शास्त्रविर्षे कहा है। यहाँ तौ जिनवचन की किछू बात राखी ही नाहीं। इस समान और पाप कौन है?" जैन गणित के व्याख्याता
जैन-गणित स्वयं में परिपूर्ण एक वैज्ञानिक अंकविद्या है। करणानुयोग में भूगोल, खगोल के साथ-साथ अंकविद्या ही प्रमुख है। जैनाचार्यों ने इस क्षेत्र में अद्भुत कार्य किये हैं। उनका अन्त: परीक्षण कर देशी-विदेशी कई विद्वानों ने इसे ग्रीकपूर्व प्राचीन सिद्ध किया है। पं० टोडरमलजी उस अलौकिक जैन एवं लौकिक गणित के धुरन्धर विद्वान् थे, उन्होंने जनसामान्य के हितार्थ कुछ महत्त्वपूर्ण समस्याओं पर गुर (Formula) लिखे थे। उन्हें देखकर यह स्पष्ट हो जाता है कि हर विषय में उनकी कितनी गहरी पैठ थी तथा दूसरों को समझाने की कैसी अद्भुत क्षमता थी। त्रिलोकसार' की भूमिका में उन्होंने लिखा है"सर्व शास्त्रनिका ज्ञान होने को कारणभूत दोय विद्या हैं । एक अक्षरविद्या एक.अंकविद्या। सो व्याकरणादि करि अक्षर ज्ञान भए अर गणित-शास्त्रनि करि अंगज्ञान भए, अन्य शास्त्रिनि का अभ्यास सुगम हो है।"
जैन-गणित का वर्गीकरण करते हुए लिखा है—“बहुरि परिकष्टिक को सीखना सो संकलन, व्यवकलन, गुणाकार, भागहार, वग, वर्गमूल, धन, धनमूल, इनकी परिकर्माष्टक कहिए है।"
लम्बी संख्या का भाग करना प्राय: कठिन होता है, लेकिन पण्डितजी ने उसे हल करने के लिये एक नया गुर (सिद्धांत) ही बना दिया और सोदाहरण उसका विश्लेषणकर दिया यथा— “भाज्य राशि के अंतादिक जेते अंकनिकरि भाजक राशि” प्रमाण वधता होइ, तितने अंकरूप राशिकों भाजक का भाग दीजिये। बहुरि जिस अंककरि भाजक कों गुणें जाकों भाग दीया था, तामें घटाइ अवशेष तहाँ लिख दीजिये, अर वह पाया अंक जुदा लिख दीजिये। बहुरि जैसें भाज्य के अंक रहे तिनके अंतादि अंकनिर्को तैसैं ही भाग देइ जो अंक आवै, ताकों तिस पाया अंक के आगै लिखिए। ऐसे ही यावत्सर्व भाज्य के अंक नि:शेष होइ तावत् विधान करें, तहाँ पाए अंकनिकरि जो प्रमाण आवै, सो तहां भाग दीए जो राशि भया, ताका नाम लब्धराशि है, ताकर प्रमाण जानना।" इस सिद्धान्त के स्पष्टीकरण के लिये उन्होंने एक उदाहरण दिया है, जैसे 8192 में 64 का भाग देना है; आधुनिक रीति से तो 8192 + 64 करने में जटिलता अधिक है। किन्तु पण्डितजी के सिद्धांत के अनुसार भाज्य 8192 में से उसकी आदि दो संख्या
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प्राकृतविद्या+ अक्तूबर-दिसम्बर '2001