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अगर ऋषभदेव को स्वीकार ही नहीं किया गया, पूजा भी गया, तो जाहिर है कि भगवान् ऋषभ ने एक ऐसी अद्भुत-परम्परा का प्रवर्तन किया, जिसे पुराणों ही नहीं, 'ऋग्वेद' में भी यत्र-तत्र स्मरण किया गया है। 'ऋग्वेद' में एक शब्द मिलता है 'वृषभ' । विशेषण के रूप में इसका अर्थ है 'श्रेष्ठ' । परंतु शब्द ऋषभ हो या वृषभ, उसमें उच्चारण की सुविधा के कारण कोई अंतर नहीं पड़ता और बात एक ही है। इसलिए 'ऋग्वेद' में वृषभ या ऋषभ के श्रेष्ठ राजा और दार्शनिक होने के अद्भुत कर्म का उल्लेख एकाधिक बार आया है। एक स्थान पर तो ऋषभदेव का सम्बन्ध कृषि और गोपालन के सन्दर्भ में मिलता है, जो जाहिर है कि जैन-परम्परा को ही पुष्ट कर रहा है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि जैन-परम्परा के सभी तीर्थकर में अकेले भगवान् ऋषभदेव को केशी, अर्थात् सिर के लम्बे बालों से युक्त होने के कारण केशी' कहा गया है। तीर्थंकर ऋषभदेव की अनेकों प्रतिमायें भी ऐसी मिली है, जिनमें उनके लम्बे सुन्दर केश कंधों से भी नीचे तक लटक रहे हैं और वे स्वयं दिगम्बर-अवस्था में हैं। एक प्रतिमा का समय आज से दो हजार साल पहले कुषाणकाल' में माना जाता है।
और 'ऋग्वेद' के दसवें मंडल में एक सूक्त (संख्या 136) सिर्फ 'केशी' को लेकर है, और उसमें केशी का भी जो काव्यमय वर्णन मिलता है, उसे आप चाहें, तो ऋषभदेव के विलक्षण गुणों के साथ जोड़कर देख सकते हैं और मनचाहे निष्कर्ष निकाल सकते हैं। . तो कहाँ पहुँचे? यहाँ कि भगवान् ऋषभदेव बेशक प्रथम तीर्थंकर हैं और विष्णु के अवतार हैं; पर उन्हें यह अद्भुत गौरव इस देश के लोगों ने उनके द्वारा किए गए इस अद्भुत योगदान के लिए दिया कि किसप्रकार एक राजा प्रजा के कल्याण की चिंता में दिन-रात एक करता हुआ भी आत्मज्ञान की परम-अवस्था को छू सकता है। उन्होंने एक ऐसा घाट बना दिया, जिस पर चलने की अपेक्षा आगे चलकर हर राजा से की गई, और कुछ तो उस पर चले भी। पर घाट बनानेवाले का सम्मान क्या हमने किया? किया। अगर सन्दर्भ आज का हो तो पूछना पड़ेगा, क्या उतना किया, जितना एक घाट बनानेवाले का करना होता है? अगर नहीं किया तो क्या बिगड़ा है? देश अपने पास है? देश की परम्परा अपने पास है, ऋषभ की मीठी-स्मृतियाँ अपने पास हैं, तो क्यों न बनें भगवान् ऋषभ हमारी आज की संसद् के आदर्श? प्राखभपुत्र भरत : जिनसे मिला इस देश को अपना नाम 'भारतवर्ष
आज कुछ नहीं करना। सिर्फ भारत का गुणगान करता है। भारत का गुणगान करना तो एक तरह से अपना ही गुणगान करना हुआ। तो भी क्या हर्ज है? गुणगान इसीलिए करना है क्योंकि उनको, उन पश्चिमी विद्वानों को जो हमें सिखाने का गरूर लेकर इस देश में आए थे, उनको बताना है कि हमारे देश का जो नाम है, वह वही क्यों है। वे जो अहंकार पाले बैठे थे कि इस फूहड़ (उनके मुताबिक) देश के बाशिंदों को उन्होंने सिखाया है कि राष्ट्र क्या होता है, राष्ट्रीयता एकता क्या होती है, उन्हें बताना है कि इस देश के पुराने, काफी
. प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2001
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