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कि वेदांग-ज्योतिष के विकास में जैन-ज्योतिष का बड़ा भारी सहयोग है, बिना जैन-ज्योतिष के अध्ययन के वेदांग-ज्योतिष का अध्ययन अधूरा ही कहा जायेगा। भारतीय प्राचीन-ज्योतिष में जैनाचार्यों के सिद्धांत अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण हैं।" विशेषकर दक्षिण भारत के संबंध में उनकी सूचना है कि आर्यभट्ट ने भी जैन-युग की उत्सर्पिणी' और 'अवसर्पिणी'-संबंधी कालगणना को स्वीकार किया है। पांड्य-राष्ट्र में आचार्य सर्वनंदी ने गणित-ज्योतिष का ग्रंथ लिखा था। कन्नड़ में 'लीलावती' नामक ग्रंथ प्रसिद्ध है। डॉ० नेमिचंद्र का कथन है कि “जैनाचार्यों ने ज्योतिष
और गणित-संबंधी ग्रंथों की रचना संस्कृत, प्राकृत, कन्नड़, तमिल एवं मलयालम आदि भाषाओं में भी की है।" उपर्युक्त 'चूड़ामणि' की प्रस्तावना में प्रश्न-ज्योतिष का विकासक्रम बताते हुए डॉ० नेमिचंद्र ने इस विषय का प्रथम जैन-ग्रंथ 'अर्हच्चूड़ामणिसार' को बताया है और उसे आचार्य भद्रबाहु की कृति माना है। वे लिखते हैं कि अर्हच्चचूड़ामणिसार' के पश्चात् ग्रंथों की परम्परा बहुत जोरों से चली। दक्षिण-भारत में प्रश्न-निरूपण करने की प्रणाली अक्षरों पर ही आधारित थी। 5-6 शती में चंद्रोन्मीलन' नामक प्रश्न ग्रंथ बनाया गया है। जैनों की पाँचवीं-छठी शताब्दी की यह प्रणाली बहुत प्रसिद्ध थी, इसलिए इस प्रणाली को ही लोग 'चंद्रोन्मीलन प्रणाली' कहने लगे थे। चंद्रोन्मीलन के व्यापक प्रचार के कारण घबड़ाकर दक्षिण-भारत में केरल' नामक प्रणाली निकाली गयी है। केरलप्रश्नसंग्रह' केरलप्रश्नरत्न, केरलप्रश्नतत्त्वसंग्रह आदि केरलीय प्रश्न-ग्रंथों में चंद्रोन्मीलन के व्यापक प्रचार का खंडन किया है—"प्रोक्तं चंदोन्मीलनं दिक्वस्त्रैस्तच्चाशद्धम्" । पाठक स्वयं देख सकते हैं कि यहाँ इस उद्धरण में यह कह दिया गया है कि चंद्रोन्मीलन का कथन दिक्वस्त्रों ने किया है, वह अशुद्ध है। 'दिक्वस्त्र' का अर्थ है 'दिशा ही जिनके वस्त्र हैं' अर्थात् दिगम्बर-जैन मनि । केरल में एक ग्रंथ 'प्रश्नचूड़ामणि' नामक का भी मिलता है। वह भी ज्योतिषाचार्य के अनुसार जैनआचार्य द्वारा प्रणीत हो सकता है ! उसके अंत में “ॐ शान्ति श्री जिनाय नम:” लिखा है।
डॉ० नेमिचंद्र के अनुसार केवलज्ञानप्रश्नचूड़ामणि' का रचनाकाल 13वीं सदी का मध्यभाग हो सकता है तथा उसके रचयिता समंतभद्र हैं, जो कि आयुर्वेद और ज्योतिष के विद्वान् थे। वे काँची के समंतभद्र से भिन्न हैं।" शाकाहार
केरल के लोगों के आचार-विचार के संबंध में जैनधर्म के प्रभाव का विश्लेषण केरलचरित्रम्' में उपलब्ध है। वह इसप्रकार है- “हिंदुओं के आचार-विचार में बौद्धजैनधर्मों का काफी प्रभाव मिलता है। मांसाहार का वर्जन इसमें प्रमुख है।" – (पृ० 323) इसलिये मांसाहार के वर्जन का श्रेय जैनधर्म को ही दिया जाना चाहिए। इतिहासकार श्रीधर मेनन ने लिखा है कि केरल अठारहवीं सदी तक शाकाहारी रहा। बौद्धधर्म तो केरल से इस सदी से लगभग एक हजार वर्ष पूर्व ही केरल से लुप्त हो चुका था। जिस धर्म के लोग मांस खाते हों, उसे शाकाहार का श्रेय कैसे दिया जा सकता है?
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प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2001