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की जिस पहाड़ी पर ये अवशेष हैं, वह 'तिरुच्चारणट्टमलै' कहलाती है अर्थात् 'चारणों की पवित्र-पहाड़ी', जो कि किसी समय जैनों के लिए पावापुरी के समान पवित्र-स्थान थी। अब वहाँ का 'गुफा मंदिर' भगवती-मंदिर कहलाता है; किंतु उसमें महावीर, पार्श्वनाथ और अंबिकादेवी की प्रतिमायें आज भी देखी जा सकती हैं। इसके अतिरिक्त वहाँ की चट्टान पर लगभग तीन जैन-प्रतिमायें उत्कीर्ण हैं । ऐसा संभवत: जिन-मूर्तियों-संबंधी ज्ञान के अभाव के कारण होता है। वहाँ के पुजारी भी उन प्रतिमाओं को बुद्ध की मूर्ति' बतलाते हैं।
श्वेताम्बर आचार्य हस्तीमलजी ने वृहदाकार-ग्रंथ 'जैनधर्म का मौलिक इतिहास' में नागार्जुन नामक एक जैन-आचार्य का परिचय दिया है, जिसकी कुछ प्रमुख बातें इसप्रकार हैं— “आचार्य नागार्जुन ने प्रारंभ से ही प्रबल साहसी होने के कारण पर्वतों की गुफाओं एवं जंगलों में घूम-घूम कर वनवासी महात्माओं के संसर्ग से वनस्पतियों, जड़ियों और रसायनों द्वारा रस बनाना सीख लिया।" उनकी जीवनी में आगे कहा गया है कि "एक दिन नागार्जुन ने अपने गुरु पादलिप्त सूरि को स्वर्ण बनाने, पैरों में लेप लगाकर गगन में विहार आदि द्वारा प्रभावित करने का भी उपक्रम किया था। इस पर सूरिजी ने नागार्जुन को समझाया क "वे सांसारिक विभूतियों के प्रलोभन से दूर रहकर अपनी आत्मा के कल्याण का मार्ग अपनावें।" नागार्जुन ने वैसा ही किया। उनका समय गुप्तवंशी चंद्रगुप्त प्रथम और समुद्रगुप्त का समय बताया है अर्थात् चौथी सदी ईस्वी का पूर्वार्द्ध । आचार्य नागार्जुन ने दक्षिणापथ के श्रमण या जैन-साधुओं को भी एकत्रित किया था। क्या यह संभव नहीं कि 'रसवैशेषिक सूत्रम्' इन्ही की कृति हो। यह भी स्मरणीय है कि उक्त सदी में तमिलगम्' में जैनधर्म का अत्यधिक प्रभाव था। इस प्रश्न पर शोध की आवश्यकता है, विशेषकर केरल के कवि कुंजिकुटटन तंपूरान के इस कथन के प्रकाश में कि “केरल के ब्राह्मणों ने वैद्यक का ज्ञान जैनों से भी प्राप्त किया था।" प्रस्तुत लेखक ने उपर्युक्त दो ग्रंथों का ही सरसरी- तौर पर अध्ययन किया था। अन्य ग्रंथों पर भी जैन-प्रभाव की संभावना-संबंधी खोज होनी चाहिए।
पूज्यपाद के वैद्यक-संबंधी प्रयोग आरा (बिहार) से प्रकाशित वैद्यसारसंग्रह' नामक ग्रंथ में प्रकाशित हैं। ज्योतिष और जैन
कुंजिकुट्टन तंपूरान का यह मत भी समीचीन है कि केरल के ब्राह्मणों ने ज्योतिष का ज्ञान जैनों से भी प्राप्त किया था। केरल के ज्योतिष-इतिहास में ही नहीं, अपितु भारतीय-ज्योतिष के इतिहास में भी जैनों का बहुमूल्य योगदान है। स्व० डॉ० नेमिचंद्र ज्योतिषाचार्य ने 'भारतीय-ज्योतिष' का एक विस्तृत ग्रंथ लिखा है, जिसके चौदह संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। उन्होंने केवलज्ञानप्रश्नचूड़ामणि' नामक प्रश्न-ज्योतिष के एक प्राचीन-ग्रंथ की भूमिका में केरल में लोकप्रिय प्रश्न-ज्योतिष आदि के संबंध में जो तथ्य दिए हैं, उनका संक्षिप्त उल्लेख यहाँ उद्धृत है। वे लिखते हैं, “डॉ० श्याम शास्त्री ने वेदांग-ज्योतिष की भूमिका में बताया है
प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2001
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