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अंग का नाम 'दृष्टिवाद' है। उसके एक भेद 'पूर्व' के अंतर्गत प्राणावाय में अष्टांगहृदय आयुर्वेद का विस्तार से वर्णन है। 'आचार्य - देशभूषण - अभिनंदन - ग्रंथ' में एक लेख 'आयुर्वेद के विषय में जैन-दृष्टिकोण और जैनाचार्यों का योगदान' में आयुर्वेदाचार्य राजकुमार जैन ने ‘प्राणावाय' की परिभाषा निम्नप्रकार उद्धृत की है “कायचिकित्साद्यष्टांग - आयुर्वेद - भूतकर्मजांगुलिप्रमः प्राणापानविभागोऽपि यत्र विस्तरेण वर्णितस्तत्प्राणावायम्” अर्थात् जिस शास्त्र में काय, तद्गत दोष और उनकी चिकित्सा आदि अष्टांग - आयुर्वेद आदि, पृथ्वी आदि पंचमहाभूतों के कर्म, विषैले जीव-जंतुओं के विष का प्रभाव और उसकी चिकित्सा तथा प्राण अपान वायु का विभाग विस्तारपूर्वक वर्णित हो, वह 'प्राणावाय' होता है।” इस अत्यंत प्राचीन परिभाषा में 'अष्टांग आयुर्वेद' का उल्लेख स्पष्टरूप से है । अत: इस नाम के ग्रंथ के जैन होने की संभावना बनती है।
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आयुर्वेदिक-चिकित्सा बिना मांस और अशुचि - पदार्थों के सेवन के भी की जा सकती है, यह सिद्ध करने के लिए जैन आचार्य उग्रादित्य ने 'कल्याणकारक' नामक वैद्यक-ग्रंथ की रचना की थी। उसका भी दक्षिण भारत में आदर है । इस ग्रंथ में 'अष्टांगहृदय' को “समंतभद्रैः प्रोक्तं” अर्थात् समंतभद्र द्वारा कथन किया गया कहा गया है। इससे भी ‘अष्टांगहृदय' जैन-ग्रंथ है – ऐसा सूचित होता है ।
पंद्रहवीं सदी में 'आशाधर' नाम के एक जैन विद्वान् हुए हैं, जिन्होंने जैन-गृहस्थों और जैन-मुनियों के आचार के विषय में 'सागार - धर्मामृत' और 'अनगार - धर्मामृत' नामक दो ग्रंथों की रचना की है। ऊपर उल्लिखित अभिनंदन ग्रंथ में डॉ० तेजसिंह गौड़ ने अपने लेख 'जैन-संतों की आयुर्वेद को देन' में आशाधर के संबंध में यह सूचना दी है, “इन्होंने वाग्भट के प्रसिद्ध ग्रंथ 'अष्टांगहृदय' पर 'उद्योगिनी' या 'अष्टांगहृदयद्योतिनी' टीका लिखी थी।" आशाधर की ग्रंथ - प्रशस्ति में इसका उल्लेख है—
आयुर्वेदविदामिष्टं व्यक्तु वाग्भटसंहिता । अष्टांगहृदयोद्योतं निबंधमसृजच्चयः । ।
उपर्युक्त उल्लेखों को देखते हुए विद्वानों को इस ग्रंथ के जैन-ग्रंथ होने की संभावना पर भी विचार करना चाहिए ।
'रसवैशेषिकसूत्रम्' और नागार्जुन
केरल के आयुर्वेदिक कॉलेज में 'रसवैशेषिकसूत्रम्' नाम का एक ग्रंथ पढ़ाया जाता है और उसके कर्ता दूसरी सदी के बौद्ध - आचार्य नागार्जुन हैं— ऐसा माना जाता है। किंतु इसी ग्रंथ की श्री शंकर - लिखित 'भूमिका' में यह प्रतिपादित किया गया है कि यह रचना सातवीं सदी के किसी बौद्ध मलयाली - लेखक की है, जिसका नाम भी नागार्जुन था। इस भूमिका में भी बौद्ध और जैनधर्म-संबंधी भ्रांति परिलक्षित होती है । भूमिका - लेखक ने केरल में बौद्ध-अंशदान का उदाहरण देते हुए लिखा है कि 'चिरातल' नाम के गाँव के पास बौद्ध-अवशेष देखे जा सकते हैं। वहाँ बौद्ध नहीं, अपितु जैन- अवशेष हैं। इस गाँव के पास
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प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2001