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संगीत-समयसार ___ केरल में संगीत के क्षेत्र में 'संगीतशास्त्र' नामक ग्रंथ की प्रसिद्धि है। उसका प्रकाशन त्रिवेंद्रम् की संस्कृत-सीरीज के अंतर्गत किया गया है। उसके रचनाकार पार्श्वदेव नाम के जैन-आचार्य हैं। इन्होंने मंगलाचरण की प्रथम-पंक्ति में ही समवसरण (तीर्थंकर की उपदेश-सभा) का उल्लेख किया है। इसके अतिरिक्त उन्होंने अपने आपको 'सम्यक्त्वचूड़ामणि' कहा है। 'सम्यक्त्व' एक जैन-पारिभाषिक-शब्द है। इसका नामकरण भी आचार्य ने संभवत: कुंदकुंदाचार्य की बहु-आदृत एवं प्रसिद्ध कृति समयसार' के अनुकरण पर किया है, ऐसा प्रतीत होता है। पार्श्वदेव ने अपना परिचय दिगंबरसूरि' के रूप में दिया है। इसमें उन्होंने संगीत-प्रतियोगिता के नियम, निर्णायक की योग्यता आदि का भी उल्लेख किया है। लोकव्यवहारसिद्ध-राग के अंतर्गत आचार्य ने कर्णाट, गौड़, द्राविड़ गौड़, द्राविड़ि गुर्जरी, दक्षिण गुर्जरी आदि का विवेचन किया है। यह संगीत समयसार' कुंदकुंद भारती, नई दिल्ली द्वारा हिंदी-अनुवाद आदि सहित आचार्य बृहस्पति के संपादन में प्रकाशित हो चुका है। प्रश्न किया जा सकता है कि कर्नाटक के इस दिगंबर जैन-साधु को राग, आलाप आदि संगीत की विधाओं से क्या लेना-देना? इसके उत्तर के लिए केरल-कर्नाटक की तत्कालीन परिस्थिति पर विचार करना चाहिए। उन दिनों शैव-वैष्णवभक्ति आंदोलन जोरों पर था। आचार्य की यह भावना रही होगी कि जैनों को भी संगीतमय-भक्ति में पीछे नहीं रहना चाहिए। इसके अतिरिक्त यह भी स्मरणीय है कि जैनधर्म में तीर्थंकर के सम्मुख नृत्य और गायन की बहुत प्राचीन-परंपरा है। मान्यता है कि तीर्थंकर के जन्म आदि के समय इन्द्र नृत्य करता है। जैन-धार्मिक-उत्सवों के समय आज भी इन्द्र जैसी वेश-भूषा बनाकर संगीत के साथ नृत्य-गायन का आयोजन होता है। मधुर-कंठ का वरदान-प्राप्त जैन-साधु भी संगीतमय-उपदेश देते हैं। राजस्थान में जैन-साधुओं द्वारा लावणी' नामक संगीत-रचना का बड़ा प्रचार है। स्वयं पार्श्वदेव ने लिखा है कि “गमकों से मन की एकाग्रता होती है।" तन्मयता भी तो इस एकाग्रता को संभव बनाती है। आचार्य स्वयं भी मीठी तान और लय के धनी रहे होंगे। चित्रकारी
जैन-मंदिरों में प्राचीनकाल से ही तीर्थंकरों के जीवन, बाहुबलि भगवान् की तपस्या, मुनियों पर उपसर्ग, नेमिनाथ की बारात और उनका वैराग्य, पार्श्वनाथ को कमठ द्वारा ध्यान से विचलित करने के लिए कष्ट दिया जाना, लोभ के परिणाम, तीर्थंकर-माता के स्वप्न, अहिंसामयी-वातावरण में सिंह और गाय का एक साथ पानी पीना, गजलक्ष्मी, तीर्थंकर की उपदेश-सभा (समवसरण), प्राकृतिक दृश्य, तीर्थस्थानों के चित्र, धर्मचक्र, कमल, कलश आदि मांगलिक-पदार्थों का चित्रण मंदिर की दीवालों आदि पर किया जाता रहा है।
दक्षिण-भारत के जैन-मंदिरों में भी इसका प्रचलन था। केरल में साष्टांग-प्रणाम करती हुई भक्त-महिला का भी प्रस्तर-अंकन कोविलों में देखा जा सकता है। नागरकोविल के मंदिर
प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2001
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