Book Title: Prakrit Vidya 2001 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 82
________________ में, शुचींद्रम के कोविल में एवं कुछ अन्य मंदिरों में इसप्रकार के अंकन हैं। संगमकालीन-साहित्य में भी इसप्रकार की चित्रकारी के संकेत मिलते हैं। केरल गजेटियर (P.121) का कथन है, "Sangam classics refer to the figures of Gods and scenes of nature painted on walls and canvas. We are led to believe that the Jains were the first to initiate the practice of painting on the walls." कार्तिक-दीपम्-उत्सव केरल में कार्तिक-मास में शानदार तरीके से दीपोत्सव' मनाया जाता है। यह उत्सव भी प्राचीनकाल से, कम से कम संगलकाल से चला आ रहा है। गजेटियर ने उसे चोल देश' के किसानों से जोड़ने का प्रयत्न किया है। दूसरे उसने यह अनुमान किया है कि प्राचीनकाल के चेर-शासकों के समय में यह उत्सव भगवान् मुरुग के सम्मान में मनाया जाता रहा होगा; किंतु उसके संपादक ने यह स्वीकार किया है कि उन्हें चेर-शासकों के समय के काव्य में ऐसा कोई संदर्भ नहीं मिला। स्पष्ट है कि ये कथन अटकल पर आधारित हैं। केरल में जैनधर्म का प्रचार था, इससे संभवत: इम्कार नहीं किया जा सकता। इस दीपोत्सव का संबंध भी जैन-परंपरा से संबंधित किया जा सकता है। ईसा से 527 वर्ष पूर्व भगवान महावीर का निर्वाण आधुनिक पटना के समीप स्थित पावापुरी में कार्तिक मास की चतुर्दशी के अंतिम-प्रहर में 'स्वाति' नक्षत्र में हुआ था। उस समय सर्वत्र शोक छा गया। जिस रात्रि में श्रमण भगवान् महावीर कालधर्म को प्राप्त हुए, यावत् उनके संपूर्ण दुःख पूर्णरूप से नष्ट हो गए, उस रात्रि में कासी-कोसल के नौ मल्ल-राजा और नौ लिच्छवि-राजा, कुल अठारह गणराजा अमावस्या के दिन आठ प्रहर का प्रोषधोपवास करके वहाँ ठहरे हुए थे। उन्होंने यह विचार किया कि “भावोद्योत अर्थात् ज्ञानरूपी प्रकाश चला गया है, अत: हम द्रव्योद्योत करेंगे अर्थात् दीपावली प्रज्वलित करेंगे।" तभी से 'दीपावली' का प्रारंभ हुआ। ईस्वी सन् 784 में रचित जैन 'हरिवंशपुराण' में आचार्य जिनसेन प्रथम ने स्पष्ट लिखा है कि निर्वाण के समय देवों और मनुष्यों ने भगवान् के शरीर की पूजा की और दीप प्रज्वलित किए। उनके शब्दों में ज्वलत्प्रदीपालिकया प्रवृद्धया सुरासुरैः दीपितया प्रदीप्तया। तदा स्म पावानगरी समन्तत: प्रदीपितताकाशतला प्रकाशते ।। 19।। ततस्तु लोक: प्रतिवर्षमादरात् प्रसिद्धदीपालिकयात्र भारते। समुद्यम: पूजयितुं जिनेश्वरं जिनेंद्रनिर्वाणविभूतिभक्तिभाक् ।। 20 ।। अर्थ :- उस समय सुर और असुरों के द्वारा जलायी हुई देदीप्यमान दीपकों की पंक्ति से पावानगरी का आकाश सब ओर से जगमगा उठा। उस समय से लेकर भगवान् के निर्वाण-कल्याण की भक्ति से युक्त संसार के प्राणी इस भरतक्षेत्र में प्रतिवर्ष आदरपूर्वक 0080 प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2001

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