Book Title: Prakrit Vidya 2001 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 73
________________ (Pamkava), Makaviram (Magasira), Vairam (Vavara, Vivegikku (Vivega), Vedivan (Veddiava) are some such words." तमिल-सहित द्रविड-भाषाओं पर जैन-प्रभाव दक्षिण-भारत की प्रादेशिक भाषाओं के प्रयोग और विकास में जैनों की प्रमुख भूमिका रही है- यह तथ्य सभी निष्पक्ष-भाषाविद् अच्छी तरह जानते हैं। संस्कृत का प्राधान्य, विशेषकर केरल में, बहुत बाद की बात है। ब्राह्मण-वर्ग ने तो संस्कृत को अपने लिए सुरक्षित रखा था। केरल के अत्यंत सम्मानित समाज-सुधारक श्री चट्टम्पि स्वामी और नारायण गुरु का संघर्ष इसका उदाहरण है। प्राचीन तमिल-साहित्य भी केरल की बहुमूल्य-विरासत है। उसके संपोषण में जैनों का बहुत बड़ा योगदान रहा है। गजेटियर के पृ० 235-236 पर ठीक ही लिखा है fas, "The earliest votaries of Dravidian literature have been Jains. Robert Caldwell most pertinently remarks 'Doubtless The Jains themselves used Sanskrit i southern as in northern India at the commencement of their work as teachers. ' (probably for a century or two before) they set themselves to the task of developing amongst each of the Dravidian races a popular literature independent of their rivals the Brahmins. ..."Some of the oldest Tamil works extant were written or claimed to have been written by the Jains. The Naladiyar and the Kural are said to belong to the Jain cycle in the history of Tamil literature. Some scholars arrived at this conclusion from the internalevidence of the works themselves.Caldwell is of the view that "Tamil is indebted for its high culture and its comparative independence of Sanskrit chiefly to the Jains." जैन-मुनियों, धर्म-प्रचारकों आदि द्वारा क्षेत्रीय-भाषाओं के विकास और प्रयोग का प्रमुख कारण यह है कि उन्होंने प्राकृत को देववाणी' आदि नहीं कहा, बल्कि इसके विपरीत उन्होंने संबंधित-क्षेत्र की भाषा को अपनाया और उसी में अपना उपदेश आदि देने के साथ ही साथ उसमें बहुमूल्य-साहित्य का सृजन भी किया। कन्नड़ और तमिल के प्राचीन कोश, व्याकरण, काव्य, महाकाव्य आदि इसके प्रमाण हैं। तमिल का उपदेशात्मक या नीतिपरक-विपुल-साहित्य जैनों की विशेष देन है। वह भी केरल की विरासत है। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि इस साहित्यिक-निधि को अन्य किसी धर्म की देन बतलाने की प्रवृत्ति भी देखी जाती है। न तो पिछली सदियों में और न ही आजकल जैन-मुनियों ने प्राकृत में ही अपना या महावीर का संदेश सुनने का कभी आग्रह किया। जैन-मुनि के लिए यह विधान भी है कि वे अन्य भाषायें सीखें और लोकभाषा में उपना उपदेश दें। वास्तव में जैन-संघ सदा ही लोक-भाषाओं का प्रबल पक्षधर रहा है। मलयालम भाषा में केरलचरित्रम्' (केरल का इतिहास) दो वृहदाकार खंडों में केरल हिस्ट्री एसोसिएशन' द्वारा प्रकाशित किया गया है। उसमें (पृ० 1023-24) भी जैनों के योगदान की चर्चा है। किंतु जैनधर्म के साथ बौद्धधर्म का भी नाम जोड़ा गया है। यह प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2001 . 00 71

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