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कैसे इस दुनिया में रहकर भी दुनिया से ऊपर रहा जा सकता है। और ऐसे महामानव को अगर जैन-परम्परा ने 'प्रथम तीर्थंकर' और भागवत-परम्परा ने 'विष्णु का अवतार' मानकर समानरूप से 'भगवान् ऋषभदेव' कह दिया, तो इसमें हैरान नहीं होना चाहिए।
पर यकीन मानिए कि हमारे इस कथन को पढ़कर हर कोई इस बात पर हैरान हो रहा होगा कि इसमें कौन- सी नई बात है कि एक राजा था, वह दार्शनिक भी हो गया? आखिर अम्बरीष भी राजा थे और भक्त भी थे। जनक भी राजा थे और ब्रह्मवेत्ता भी थे। सिद्धार्थ गौतम भी तो बुद्ध बनने से पहले राजकुमार थे। वैसे ही महावीर भी जिन' और 'तीर्थंकर' बनने से पहले राजकुमार थे और अगर ये दोनों राजकुमार घर-बार छोड़कर निकल न जाते, तो क्या महान राजा-दार्शनिक न होते? __ जरूर होते; पर चूँकि इस तरह के राजा दार्शनिकों की एक लम्बी-परम्परा हमारे देश में है, इसलिए हमें इसके प्रवर्तक के महत्त्व का पूरा पता नहीं चल रहा। चूँकि घाट बना पड़ा है और हम निश्चित होकर नदी में नहा रहे हैं, इसलिए हमें घाट बनानेवाले के उस महत्त्व की वैसी याद ही नहीं आ रही। अत: जिस समाज को अव्यवस्था के प्रलय से निकालने के लिए मनु ने भारत के ज्ञात इतिहास में पहली बार राजा का पद-ग्रहणकर समाज और शासन के लिए नियम बनाये हों, कहीं ऐसी राजसत्ता निरंकुश होकर उसे जन्म देनेवाली प्रजा पर ही अत्याचार ढाने न लगे, उसे रोकने के लिए आद्य-वशिष्ठ ने राजदंड पर ब्रह्मदंड का संयम ओढ़ाने का महान विचार इस देश को दिया हो, उस समाज में कुछ ही वक्त में एक अद्भुत राजा हो जाए, जो अपने राजदंड को अपने ही ब्रह्मबल से खुद ही संयत करने की नई परम्परा का सूत्रपात कर दे, तो क्या ऐसा प्रवर्तक राजा-दार्शनिक हमारे प्रणाम का पात्र नहीं बन जाता? चूँकि ऐसे राजा-दार्शनिकों की एक परम्परा हमारे पास है, चूँकि घाट बना पड़ा है, इसलिए उसका महत्त्व हमें उस हद तक दर्ज नहीं हो रहा; और जहाँ ऐसी परम्परा नहीं होती, ऐसा घाट नहीं होता, वहाँ ऐसे प्रवर्तक का कितना महत्त्व हो सकता है? इसके लिए याद कीजिए प्लेटो के फिलॉसॅफर किंग' के विचार को, इस विचार का मर्तरूप बने किसी शासक की पश्चिम को आज भी तलाश है, और पता नहीं कब तक तलाश रहेगी। - हमारे देश में ऐसे विराट व्यक्तित्व दुर्लभ हैं, जो एक से अधिक परम्पराओं में भी समानरूप से मान्य और पूज्य हों। भगवान् ऋषभदेव उन दुर्लभ महापुरुषों में से एक हैं,
और संभवत: सबसे पुराने । जहाँ जैन-परम्परा उन्हें अपने तीर्थंकरों की श्रेणी से पहला मानती है, वहाँ भागवत-परम्परा में उन्हें विष्णु के चौबीस अवतारों में से एक माना गया है। बाकी तमाम वर्णन लगभग समान है। वे आग्नीधराजा के पुत्र नाभि के पुत्र थे और उनकी माता का नाम 'मेरुदेवी' था, जिन्हें जैन-परम्परा 'मरुदेवी' कहती है। जैनमत में ऋषभदेव को प्रथम राजा माना जाता है, तो भागवत-परम्परा में उन्हें मनु से पांचवीं पीढ़ी'
प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2001
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