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कहा गया है। दोनों परम्परायें उन्हें 'इक्ष्वाकुवंशी' और 'कोसलराज' मानती हैं और समानरूप से कहती हैं कि ऋषभदेव को जन्म से ही विलक्षण सामुद्रिक-चिह्न प्राप्त थे और वे शैशवकाल से ही योगविद्या में प्रवीण होने लगे थे। जैन-परम्परा पर लगभग मुहर लगाते हुए अनेक पुराण कहते हैं कि “ऋषभदेव के पुत्र भरत के नामपर इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा।" -(भागवत पुराण, पाँचवाँ स्कंध, अध्याय 6, पद्मपुराण पाँचवाँ स्कंध,
अध्याय 6, गद्य श्लोक 7) यह सब विवरण तो ठीक है। पर इसमें नोट करने लायक मजेदार बात यह है कि अगर जैन-परम्परा में इन महादार्शनिक की सांसारिक कर्मण्यशीलता पर ज्यादा बल मिलता है, तो भागवत-परम्परा में इन विशिष्ट राजा की दिगम्बरता, उनके परमहंस होने की सचाई पर कहीं ज्यादा जोर दिया गया है। और जाहिर है कि भगवान् ऋषभ का पूरा परिचय इन दोनों परम्पराओं को मिलाकर पढ़ने से ही हो पाता है। संदेश यह है कि भारत को समझने के लिए किसी एक परम्परा या पन्थ का अकेला सहारा लेकर काम नहीं चलता। सभी परम्पराओं को जानना-समझना ही पूरे भारत को जानने-समझने की अनिवार्य शर्त है। मसलन जैन-परम्परा में कुलकरों की एक नामावलि मिलती है, जिसमें ऋषभदेव पंद्रहवें, तो उनके पुत्र भरत सोलहवें कुलकर माने गए हैं। 'कुलकर' एक तरह से वे विशिष्ट-पुरुष हैं, जिन्होंने सभ्यता के विकास में कोई खास योगदान किया। सिर्फ नमूने के तौर पर जान लिया जाए, तो तीसरे कुलकर क्षेमंकर ने पशुओं का पालन करना सिखाया, पाँचवें कुलकर सीमंधर ने सम्पत्ति की अवधारणा दी और उसकी व्यवस्था करना सिखाया, ग्यारहवें कुलकर 'चंद्राभ' ने कुटुम्ब की परम्परा डाली। इस परम्परा में पन्द्रहवें कुलकर
ऋषभ ने एक नहीं बल्कि अनेक विधियों से समाज को अपना अद्भुत योगदान किया। 'असि' यानी युद्धकला, 'मसि' यानी लेखनकला, कृषिविद्या', वाणिज्य, शिल्प के प्रवर्तन के जरिए भगवान ऋषभदेव ने समाज-जीवन में पता नहीं कितना कुछ कर डाला। क्या लगता नहीं कि उन्होंने जीवन को लगभग पूर्ण बना डाला? जो लोग भारत में लेखनकला को बहुत बाद में शुरू हुआ मानते हैं, उनके लिए निवेदन यह है कि वे कृपया ऋषभदेव की पुत्री ब्राह्मी के बारे में परिचय प्राप्त करें, जिनके माध्यम से पिता ऋषभदेव ने लेखनकला का इस देश में इतने पुराने समय में प्रवर्तन कर डाला था। भारत की प्राचीनतम लिपि को 'ब्राह्मी लिपि' यूं ही नहीं कहा जाता। ___ अब इससे एकदम अलग हटकर भागवत-परम्परा की ओर चलें, तो वहाँ ऋषभदेव को परमवीतराग, दिगम्बर, परमहंस और अवधूतराजा के रूप में जबरदस्त गुणगान-शैली में, मानो लिखने वाला सश्रद्ध सिर झुकाए बैठा हो, बताया गया है। ऐसा नहीं कि उनके सांसारिक जीवन को लेकर वहाँ कोई खड़िया पोत दी गई है, जैसे कि जैन-परम्परा में भी ऋषभदेव के दार्शनिक पहलू पर कोई कम बल नहीं दिया गया है।
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प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2001