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आचार्य एवं साधु से क्रमशः पाँच और सात हाथ दूरी से वंदना
पंच-छ: सत्त हत्थे सूरी अज्झावगो य साधू य ।
परिहरिऊणज्जाओ गवासणेणेव वंदति ।। - अर्थ :-- आर्यिकायें आचार्य को पाँच हाथ से, उपाध्याय को छह हाथ से और साधु को सात हाथ से दूर रहकर 'गवासन-मुद्रा' में ही वंदना करती हैं। स्पष्ट है कि साधुओं को नारी/नारीवर्ग से सात हाथ की दूरी बनाये रखना चाहिये।" एकान्त-मिलन एवं वार्ता का निषेध
अज्जागमणे कालेण अत्थिदव्वं तधेव ऍक्केण। ताहिं पुण सल्लावो ण य कादब्वो अकज्जेण।। तासिं पुण पुच्छाओ इक्किस्से णय कहिज्ज ऍक्को दु ।
गणिणी परओ किच्चा जदि पुच्छइ तो कहेदव्वं ।। अर्थ :- आर्यिकाओं के आने के समय मुनि को अकेले नहीं बैठना चाहिये। इसीप्रकार उनके साथ बिना प्रयोजन वार्तालाप भी नहीं करना चाहिये। इनमें से यदि अकेली आर्यिका प्रश्न करे, तो अकेला मुनि उत्तर नहीं दे। यदि गणिनी को आगे करके वह प्रश्न पूछती है, तभी उसका उत्तर देना चाहिये । तात्पर्य यह कि साधु-आर्यिका असमय में और अकेले में न तो मिलें और न ही प्रयोजनहीन चर्चा करें। तरुण-तरुणी की वार्ता का दुष्परिणाम
तरुणो तरुणीए सह कहा वसल्लावणं च जदि कुज्जा।
आणाकोवादी या पंचवि दोसा कदा तेण।। अर्थ :--- तरुण मुनि तरुणी के साथ यदि (प्रम) कथा या वार्तालाप करता है, तो उस मुनि ने आज्ञाकोप, अनवस्था, मिथ्यात्व-आराधना, आत्मनाश और संयम-विराधना — इन पाँच दोषों को किया है, ऐसा समझना चाहिये। इसका परिणाम सर्वनाश ही है।" आर्यिकाओं के आवास में मुनिचर्या का निषेध और उसके परिणाम
णो कप्पदि विरदाणं विरदीणमुवासयहि म चिट्ठदुं ।
तत्थ णिसेंज्ज-उढण-सज्झायाहार-भिक्खवोसरणे ।। अर्थ :-- आर्यिकाओं के निवास-स्थल (वसतिका) में मुनियों का रहना और वहाँ पर बैठना, लेटना, स्वाध्याय आहार, भिक्षा व कायोत्सर्ग करना युक्त नहीं है। स्पष्ट है कि आर्यिकाओं के निवासस्थल पर मुनियों का निवास निषिद्ध है।20 _ 'मूलाचार' के 'समयसाराधिकार' के क्षेत्रशुद्धि की गाथा-क्रमांक 954 में पुन: उक्त तथ्य की पुष्टि की है। यह गाथा उक्त गाथा 180 के प्राय: समान ही है और गाथा-क्रमांक 952 में निर्देशित किया है कि धीर-मुनि पर्वतों की कन्दरा, श्मशान, शून्य-मकान और वृक्षों के नीचे आवास करें।
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प्राकृतविद्या+ अक्तूबर-दिसम्बर '2001