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आर्यिका - मुनि सहवास का दुष्परिणाम
'मूलाचार' की गाथा 181 एवं 182 में आर्यिकाओं और मुनियों के संसर्ग का दुष्परिणाम दर्शाया है, जो इसप्रकार है
“काम से मलिन चित्त श्रमण, स्थविर, चिरदीक्षित, आचार्य, बहुश्रुत तथा तपस्वी को भी नहीं गिनता है, कुल का विनाश कर देता है। 21 वह मुनि - कन्या, विधवा-रानी, स्वेच्छाचारिणी तथा तपस्विनी-महिला का आश्रय लेता हुआ तत्काल ही उसमें अपवाद को प्राप्त होता है। 22 'भगवती आराधना' की गाथा 341 दिशाबोधक है
खेलपडिदमप्पाणं ण तरदि जह मच्छिया विमोचेदुं । अज्जाणचरो ण तरदि तह अप्पाणं वि मोचेदुं । । अर्थ :- जैसे मनुष्य ही आर्यिका के साथ परिचय किया मुनि छुटकारा नहीं पा सकता । 23
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के कफ में पड़ी मक्खी उससे निकलने में असमर्थ होती है, वैसे
आर्यिकाओं की दीक्षा - आचार्य के गुण
जो गम्भीर हैं, स्थिरचित्त हैं, मित बोलते हैं, अल्प कौतुकी हैं, चिरदीक्षित हैं और तत्त्वों के ज्ञाता हैं –ऐसे मुनि आर्यिकाओं के आचार्य होते हैं। इन गुणों से रहित आचार्य से चार काल अर्थात् दीक्षाकल, शिक्षाकाल, गणपोषण और आत्मसंस्कार की विराधना होती है और संघ का विनाश हो जाता है। 24 इस दृष्टि से योग्य - आचार्य से ही नारियों को दीक्षा लेना उचित है 1 आर्यिकाओं का आवास कैसा हो, वे कहाँ और कैसे जावें ?
आर्यिकाओं के उपाश्रय का आवास के सम्बन्ध में 'मूलाचार' में स्पष्ट निर्देश हैं, जो इसप्रकार है जो गृहस्थों से विरित न हो, जिसमें चोर आदि का आना-जाना न हो और जो विशुद्ध-संचरण अर्थात् जहाँ मल विर्सजन गमनागमन एवं शास्त्र- स्वाध्याय आदि योग्य हो, ऐसे आवास (वसतिका) में दो या तीन या बहुत-सी आर्यिका एक साथ रहती हैं। 25 आर्यिकाओं को बिना कार्य के परगृह नहीं जाना चाहिये और अवश्य जाने योग्य कार्य में गणिनी से पूछकर साथ में मिलकर ही जाना चाहिये | 2" आर्यिकाओं को रोना, नहलाना, खिलाना, भोजन पकाना, सूत कातना, छह प्रकार का आरम्भ करना, यतियों के पैर मालिश करना, धोना और गीत गाना आदि कार्य नहीं करना चाहिये | 27
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आहार- हेतु तीन या पाँच या सात आर्यिकायें आपस में रक्षा करती हुईं वृद्धा-आर्यिकाओं के साथ मिलकर हमेशा आहार को निकलना युक्त हैं । 28
मुनि आर्यिका के संसर्ग-निषेध का कारण !'
'मूलाचार' में मुनि-आर्यिका एवं अन्य नारियों के संसर्ग का निषेध कर उसका कारण भी व्यक्त किया है, जिसो समझना जरूरी है। कारण को जाने बिना निर्णय समीचीन नहीं होता ।
यह जीव धन, जीवन, रसना - इन्द्रिय और कामेन्द्रिय के निमित्त से हमेशा अनंतबार स्वयं मरता है और अन्यों को भी मारता है। 29 चार-चार अंगुल की जिह्वा और कामेन्द्रिय
प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2001
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