Book Title: Prakrit Vidya 2001 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 64
________________ अशु है और इनसे जीव निश्चितरूप से दु:ख प्राप्त करता है । 30 अतः हे मुनि ! तुम इसी समय इस रसनाइन्द्रिय और काम- इन्द्रिय को जीतो । " काठ (लेप, चित्र आदि कलाकृति) में बने हुये स्त्रीरूप से भी हमेशा डरना चाहिये, क्योंकि इनसे जीव के मन में क्षोभ हो जाता है।” पुरुष घी के भरे घाट जैसे है, और स्त्री जलती हुई अग्नि जैसी है। स्त्रियों के समीप हुये पुरुष नष्ट हो गये हैं, तथा इनसे विरक्त - पुरुष मोक्ष को प्राप्त हुये हैं । 3 माता, बहिन, पुत्री, मूक व वृद्धस्त्रियों से भी नित्य ही डरना चाहिये; क्योंकि स्त्रीरूप में सभी स्त्रियां अग्नि के समान सर्वत्र जलाती हैं। 34 हाथ-पैर से लूली - लंगड़ी, कान-नाक से हीन तथा वस्त्ररहित स्त्रियों से भी दूर रहना चाहिये। 35 ब्रह्मचर्य मन-वचन-काय की अपेक्षा तीन प्रकार का है, तथा द्रव्य-भाव के भेद से दो प्रकार है।" भाव से विरत मनुष्य ही विरत है । द्रव्य - विरत से मुक्ति नहीं होती। इसलिये पंचेन्द्रिय के विषयों में रमण करनेवाले मन को वश में करना चाहिये । 17 अब्रह्म के दश भेद हैं— अत्यधिक भोजन करना, स्नान-तैलमर्दन आदि शरीर संस्कार, केशर - कस्तूरी गन्धमाला, गीत और वाद्य सुनना, कोमल गद्दे एवं कामोद्रेकपूर्ण एकान्त स्थल में रहना, स्त्री-संसर्ग, सुवर्ण वस्त्र आदि धनसंग्रह, पूर्वेरति- रमण, पंचेन्द्रियों के विषयों में अनुराग तथा पौष्टिक रसों का सेवन ।” जो महात्मा पुरुष महादुःखों के निवारण हेतु दश - प्रकार के अब्रह्म का परिहार करता है, वह दृढ़- ब्रह्मचारी होता है । 39 'भगवती आराधना' में गाथा 1092 से 1113 तक स्त्री- पुरुष - संसर्ग का निषेध किया है, जो पठनीय और मननीय है । आगमानुसार आचरण करने का सुफल : ‘मूलाचार' ग्रन्थ के ‘सामाचाराधिकार' का उपसंहार करते हुये आचार्य वट्टकेर घोषणा करते हैं कि "उपर्युक्तविधान रूप चर्या का जो साधु और आर्यिकायें आचरण करते हैं, वे जगत् से पूजा, यश और सुख को प्राप्त कर सिद्ध हो जाते हैं ।" "140 प्रकारान्तर से उक्त विधान की अवज्ञा-अवमानना से अपयश, दुःख और संसार - भ्रमण होता है, जो विचारणीय है। परिग्रह और स्त्री-त्याग करके साधु शीघ्र ही सिद्ध हो जाता है।" उपसंहार : I जिनेन्द्र भगवान् का वीतरागमार्ग विशिष्टमार्ग है । अंतरंग में जिनदर्शनरूप आत्मश्रद्धान-आत्मरुचि होने पर उक्तानुसार जिनभेष सहज ही बाह्य में प्रकट होते हैं । मुनिभेष में अंतरंग में तीन कषाय-चौकड़ी के अभावपूर्वक परिणति प्रकट होती है और बाह्य में सम्पूर्ण परिग्रह एवं स्त्रीत्याग - सहित आगमप्रणीत आचरण होता है । इसीप्रकार ग्यारह प्रतिमाधारी ऐलक-आर्यिका आदि के भेष में अंतरंग में दो कषाय-चौकड़ी के अभावपूर्वक विशुद्ध-परिणति प्रकट होकर आगमानुसार बाह्य - आचरण होता है तथा आचार्य, मुनियों, आर्यिका तथा नर-नारीजगत् के प्रति 'मूलाचार' के निर्देशों के अनुरूप मर्यादित, संयमित व्यवहार होता प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर 2001 ☐☐ 62

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