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विषय-गम्भीरता एवं लोकप्रियता से परिचित थे, फिर भी उन्होंने इसका नाम 'मोक्षमार्ग प्रकाश' न रखकर ‘मोक्षमार्गप्रकाशक' रखा। व्याकरण के "लघ्वर्थे कः” के नियमानुसार उन्होंने 'प्रकाश' को 'प्रकाशक' कहकर यह सिद्ध किया है, कि द्वादशांग - वाणी के सम्मुख यह रचना नगण्य है। इस कथन से उनकी निरभिमानता सूचित होती है । 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' के आद्योपान्त अध्ययन करने से निम्नलिखित तथ्य सम्मुख आते हैं
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आवश्यक सुझाव
1. मुद्रणालयों के प्रचलन के अभाव में भी इतने हस्तलिखित ग्रन्थों को उपलब्ध कर उनका गहरा अध्ययन, मनन एवं चिन्तन करना सामान्य - प्रतिभावाले व्यक्ति के लिये सम्भव न था। असामान्य प्रतिभावाले पं० टोडरमलजी के लिये ही वह सम्भव था जो अल्पआयुष्य में भी ऐसा महान् कार्य कर सके । अतः पण्डितजी द्वारा प्रयुक्त जैनग्रन्थों में जिनका प्रकाशन अभी तक न हुआ हो, उन्हें अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रचनायें समझकर उनका प्रकाशन तत्काल होना चाहिये ।
2. मोक्षमार्ग प्रकाशक के कुछ उद्धरणों का मिलान आधुनिक मुद्रित ग्रन्थों के साथ करने से उनमें बहुत अन्तर प्रतीत होता है । अतः मुद्रित एवं अमुद्रित दोनों ग्रन्थों के तुलनात्मक अध्ययन करने से उन ग्रन्थों के पुनः नवीन प्रामाणिक संस्करण तैयार हो सकते हैं ।
3. जैनधर्म की प्राचीनता सिद्ध करने हेतु पण्डितजी ने मोक्षमार्ग प्रकाशक में वैदिक एवं हिन्दू-शास्त्रों से जो उद्धरण दिये हैं, नवीन मुद्रित -ग्रन्थों में उनका अभाव अथवा परिवर्तन है। टोडरमलजी द्वारा प्रयुक्त वे सभी ग्रन्थ जयपुर के शास्त्र-भण्डारों में अवश्य होंगे। हस्तलिखित प्राचीन ग्रन्थ होने के कारण उनकी प्रामाणिकता में सन्देह भी नहीं है। अत: उनका पुन: तुलनात्मक अध्ययन होना चाहिए। तथा प्राप्त तथ्यों का प्रकाशन होना चाहिये ।
विचारधारा: निश्चय एवं व्यवहार
शौरसेनी-जैनागमों में निश्चयनय एवं व्यवहारनय की चर्चायें आती हैं। इन विषयों को लेकर विद्वानों में आजकल बड़ा शास्त्रार्थ चला करता है । कोई निश्चयनय को ही यथार्थ मानता है और कोई निश्चय एवं व्यवहार दोनों को ही उपादेय मानता है; किन्तु टोडरमलजी के अनुसार निश्चय-व्यवहार दोनों को उपादेय मानना भ्रम है, क्योंकि दोनों नयों का स्वरूप परस्पर विरुद्ध है। व्यवहारनय सत्यस्वरूप का निरूपण नहीं करता; किन्तु किसी अपेक्षा से उपचार से वह अन्यथा ही निरूपण करता है । 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' में उन्होंने लिखा है':“निश्चयनय करि जो निरूपण किया होय, ताकौं तौ सत्यार्थ मानि ताका श्रद्धान अंगीकार करना, अर व्यवहारनय करि जो निरूपण किया होय, ताकौं असत्यार्थ मानि ताका श्रद्धान छोड़ना।” आगे उन्होंने ‘समयसार कलश' एवं 'षट्प्राभृत' के उद्धरणों से अपने पक्ष का समर्थन भी किया है और उपसंहार वचनों में पुनः लिखा है—" तातैं व्यवहारनय का
प्राकृतविद्या+अक्तूबर-दिसम्बर 2001
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