Book Title: Prakrit Vidya 2001 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 54
________________ ने अपनी आवश्यकतायें इतनी असंयत बना ली हैं कि वह अपने बुने हुए जाल में फंस गया है। इनसे त्राण का मार्ग संयम है । परिग्रह - परिमाण भी संयम का ही अंग है । जैसे सुरक्षित धन संकट के समय में काम आता है, वैसे संयम मनुष्य-जीवन की प्रगति में सदैव सहायता करता है। जिसने संयम को अपना मित्र बना लिया है, उसके सभी मित्र बनने को तैयार रहते हैं। क्योंकि संयमी की आवश्यकतायें सीमित होती हैं, उसके साहचर्य से कोई परेशान नहीं होता । भाषा संयम के बिना जो सुखपूर्वक संसार से पार उतरना चाहता है, वह बिना नौका के 'तैरने की अभिलाषा रखता है। संयम महती तपस्या है, महान् व्रत है और पुरुष समुद्र के पौरुष की परीक्षा है। संयम - मणि को बलवान् ही धारण करते हैं, दुर्बलों के हाथ में से उसे विषय-भोगरूप दस्यु छीन ले जाते हैं। संयम का नाम ही उत्तम चारित्र है। मनुष्य को मन:संयम, वाक्संयम और कायसंयम रखना चाहिए । मन:संयम से इन्द्रिय-निरोध होता है । वाक्संयम से मिथ्या- भाषण - दोष तथा कायसंयम से उन्मार्गगामिता की निवृत्ति होती है । संयम के बिना जप, तप, ध्यान, सामायिक व्यर्थ हैं । संयम साधना से ही उत्तम मोक्षसिद्धि प्राप्ति होती है । - सम्यग्दर्शन बिन दुःख पाय 'समत्त - रहिद- चित्तो, जोइस मंतादिएहि वट्टंतो । णिरयदिसु बहुदुक्खं, पाविय पविसदि णिगोदम्मि । ।' अर्थ -(आचार्य यतिवृषभ, तिलोयपण्णत्ति, भाग 1. 361. 262 ) सम्यग्दर्शन से विमुख चिन्तवाला ज्योतिष और मन्त्र-तन्त्रादिकों से आजीविका करता हुआ पुरुष नरकादि में बहुत दुःख पाकर परम्परा से निगोद में प्रवेश करता है। 0052 —— सभाशास्त्र और वक्ता 'सभायां न प्रवेष्टव्याप्रविष्टश्च न वदेद् वृथा । अब्रुवत् विब्रुवन् वापि नरो भवति किल्बिषी । । ' - ( मनु० 8/ 13 ) यानि :- या तो सभा सम्मेलन में प्रवेश नहीं करना अच्छा है और यदि सभाओं में प्रवेश करना चाहते ही हैं, तो वहाँ धर्म और मर्यादायुक्त 'वचन' बोलना चाहिये । जो वक्ता या तो मौन रहता है अथवा तथ्य को विकृत करके बोलता है, तो वह महान् पाप का भागी होता है। मुनि, उपाध्याय और आचार्यों के जिह्वा पर तीन लगाम लगे हैं (सत्यमहाव्रत, भाषासमिति और वचनगुप्ति ) इन तीन बंधनों को तोड़ना महान् अनर्थ का कारण है । प्राकृतविद्या�अक्तूबर-दिसम्बर 2001

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