Book Title: Prakrit Vidya 2001 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 58
________________ रखा ही था कि उसके मुँह से एक 'सी' की आवाज निकली और तत्काल उसका पैर अपने आवरण के भीतर छिप गया। वह पत्थर लाल तवे की तरह तप रहा था। उसने आश्चर्य के साथ उन मुनियों की ओर देखा, जो उन पत्थरों पर नंगे बदन बैठकर ज्ञान का ओर-छोर पकड़ने के लिए तपस्या कर रहे थे। उसकी आँखों ने आज तक इस तरह का चमत्कार नहीं देखा था। वह बोला, “महाराज आर्मीस ! आपको विश्वास है कि यह किसी तरह का 'शौबदा' तो नहीं है?" । ___"नहीं," आंभी ने कहा, “लेकिन लोग कहते हैं कि देवता इनकी रक्षा करते हैं। यदि ऐसी दैवी-शक्ति हो, तो उसे शौबदे का नाम नहीं दिया जा सकता।" . ओनेसिक्राइटस की आंखों में साधुओं के प्रति प्रशंसा का भाव उदय हुआ। वह अपने दुभाषिये से बोला, “इनसे पूछो कि ये लोग नंगे क्यों हैं और यह किस तरह की साधना हैं, जो अकेले बिना किसी साधन के जंगल में बैठकर की जाती है।" दुभाषिये ने तुरंत उसके प्रश्न का उल्था कर दिया। ... एक मुनि ने उत्तर दिया, "सब प्रकार की हिंसा का त्याग करके ही मनुष्य मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है। प्रत्येक कृत्रिम वस्तु को बनाने में मनुष्य अगणित जीवों की हिंसा करता है। उस हिंसा को स्वयं करने से, किसी से कराने से अथवा किसी की कि हुई हिंसा का अनुमोदन करने से या उसका परिणाम ग्रहण करने से हिंसा का समान पातक लगता है। वस्त्रों के बनाने में भी इसीप्रकार असंख्य-जीवों की हिंसा होती है। मनुष्य की आत्मा पाप और पुण्य के रूप में कर्मों के बंधनों से जकड़ी हुई संसार की चौरासी लाख योनियों में भ्रमण कर रही है। जन्म-मरण के अपार दुःख और बंधन से छुटकारा पाने के लिए और अखंड आनंद के स्थान मोक्ष की प्राप्ति के लिए इन कर्मों के बंधनों से छुटकारा पाना आवश्यक है। शरीर को निष्क्रिय रखकर और ध्यान को एकाग्र करके, शरीर पर पड़ने वाले दुःखों को निर्विकार भाव से सहने से कर्मफल नष्ट होते रहते हैं और नवीन-कर्मों की उत्पत्ति नहीं होती। यही हमारी साधना है... लेकिन तुम कौन हो?" । ___ “तुम लोगों का विचार कितना भ्रांतिपूर्ण है," यूनानी दार्शनिक ने उनकी बुद्धि पर तरस खाते हुए कहा, “मैं यूनान का निवासी हूँ, विश्वगुरु अरस्तू का शिष्य हूँ और तुम्हें सही-मार्ग सुझाने के साथ-साथ तुम लोगों की विचित्र-बुद्धि का रहस्य जानने आया हूँ। मेरा नाम ओनेसिक्राइटस है।” "आश्चर्य है !” मुनि ने कहा, “इतने विद्वान् होते हुए भी तुम लोग वस्त्र-आभूषण जैसी अनावश्यक वस्तुओं के लोभ में पड़े हुए हो। जब तक इन वस्तुओं का मोह तुम्हें सताता रहेगा, तुम कभी मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकोगे। तुम हमें ज्ञान की शिक्षा देने आये हो। हमें सच्चा ज्ञान प्राप्त हो चुका है। भगवान् जिनदेव महावीर की कृपा से ज्ञान आज शत-शत दिशाओं में फूटकर मानवमात्र को मुक्ति का संदेश दे रहा है। तुम हमारा रहस्य जानने आये हो। जब तक लौहकवच, वस्त्राभूषण, शस्त्र और केश व पदत्राण आदि शरीर के ऊपर 0056 प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2001

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