Book Title: Prakrit Vidya 2001 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 49
________________ श्रद्धान छोड़ि निश्चयनय का श्रद्धान करना योग्य है । व्यवहारनय स्वद्रव्य परद्रव्य कौं वा तिनके भावनिक वा कारण कार्यादिककौं काहूकौं काहूविषै मिलाय निरूपण करै है । सो ऐसे ही श्रद्धानतैं मिथ्यात्व है। तातैं याका त्याग करना । बहुरि निश्चयनय तिनहीकौं यथावत् निरूपै है, काहूविषै न मिला है। ऐसे ही श्रद्धानतैं सम्यक्त्व हो है । तातैं याका श्रद्धान करना।" मूर्तिपूजा - पण्डितजी मूर्तिपूजा को जैनाचार का एक आवश्यक अंग मानते थे। उनके अनुसार जिनमूर्ति सजीव अथवा शुद्धात्मा या परमात्मा की प्रतिच्छाया थी । अत: उन्होंने इसका समर्थन किया तथा 'भगवतीसूत्र' का अध्ययन कर उसमें प्राप्त 'चैत्य' शब्द के अर्थों में असंगति देखकर लिखा है : – “भगवतीसूत्र - विषै-जाय तत्थ चैत्यनिकौ वंदइ' ऐसा पाठ है । याका अर्थ यहु-तहाँ चैत्यनिकौं बंदै है। सों चैत्य नाम प्रतिमा का प्रसिद्ध है । बहुरि वै हठकरि कहै है - चैत्य शब्द के ज्ञानादिक अनेक अर्थ निपजैं हैं, सो अन्य अर्थ हैं, प्रतिमा का अर्थ नाहीं । याकौं पूछिये है— मेरुरि नन्दीश्वरद्वीप - विषै जाय तहाँ चैत्यबंदना करी, सो उहाँ ज्ञानादिक की वन्दना तो सर्वत्र संभवै । जो वंदने-योग्य चैत्य उहीं ही संभवै, अर सर्वत्र न संभवै, ताकौं तहाँ वंदना करने का विशेष संभव, सो ऐसा संभवता अर्थ प्रतिमा ही है । अर 'चैत्य' शब्द का मुख्य अर्थ प्रतिमा है, सो प्रसिद्ध है । इस ही अर्थकरि चैत्यालय नाम संभवे है । याकौं हठ करि काहे को लोपिए ।” 1 शिथिलाचार एवं गुरुडम का विरोध पण्डित टोडरमलजी पाखण्ड, ढोंग, आडम्बर एवं गुरुडम के धोर विरोधी थे । शिथिलाचारी भट्टारकों ने अपने गुरुपद को सुरक्षित रखने के लिये मनमानी करना प्रारम्भ कर दी और सिद्धान्तागम ग्रन्थों का पढ़ना बन्द कर दिया था । जैन - मन्दिरों में स्वाध्याय कराने हेतु पेशेवर पण्डितों की नियुक्तियाँ करा दीं तथा मन्दिरों में सिंहासनों पर आसीन होने लगे । तात्पर्य यह कि जब भट्टारक स्वयं मठाधीश बन गये तथा पण्डितजी यह न देख सके। इनका विरोध करने के लिये उन्होंने कमर कस ली । यद्यपि उनके पूर्व महाकवि बनारसीदास सन्त कबीर की तरह ही शिथिलाचारियों को डांट-फटकार कर झाड़ चुके थे, किन्तु उसका असर कम होने लगा था, अत: टोडरमलजी ने दुगुनी शक्ति से उनका विरोध किया। उनका यह विरोध जैनाचार के क्षेत्र में जबरदस्त क्रान्ति थी । यदि उस समय पण्डितजी क्रान्ति का स्वर न फूँकते, तो आज सच्चे साधुओं के स्थान पर शिथिलाचारी एवं सरागी तथाकथित साधुओं की पूजा होती । 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' में लिखा है ' — “जहाँ मुनि के धात्रीदूत आदि छयालीस दोष आहारादिविषै कहे हैं, तहाँ गृहस्थिनि के बालकनिकौं प्रसंन करना, समाचार कहना, मंत्र, औषधि - ज्योतिषादि कार्य बतावना इत्यादि बहुरि किया कराया अनुमोधा भोजन ना इत्यादि क्रिया का निषेध किया है, सो अब कालदोषतैं इनही दोषनिकौं लगाय आहारादि ग्रहै है । ..... नाना परिग्रह राखै है। बहुरि गृहस्थधर्मविषै भी उचित नाहीं 1 प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर 2001 47

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