Book Title: Prakrit Vidya 2001 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 38
________________ गान्धार, सूरभीरू, दशेरुक, वाड्वान, भारजद्वाज, कायतोय, तार्ण, कार्ण, प्रच्छाल आदि प्रदेशों में विहार करके लोक में व्याप्त अज्ञान-अंधकार को दूर किया। भगवान के उपदेश और उनका दूरगामी प्रभाव भगवान् महावीर के उपदेश वस्तुत: नवीन थे। वे पूर्ववर्ती तीर्थंकरों के उपदेशों के नवीन संस्करण थे। वे उपदेशमात्र ही नहीं थे, यह एक महान क्रान्ति थी, जिसने लोकमानस में व्याप्त सारे मूल्यों में महान्-परिवर्तन ला दिया। उन्होंने तत्कालीन मान्यताओं के विरुद्ध नवीन-मूल्यों की स्थापना की। उनके उपदेश प्राणीमात्र के कल्याण के लिए थे। सभी को उनके धर्म का पालन का अधिकार था, सभी को उनकी उपदेश-सभा (समवसरण) में जाने का अधिकार था। धार्मिक एकाधिकार के विरुद्ध यह आध्यात्मिक-जनतन्त्र था, जिसमें ऊँच-नीच की कल्पना और वर्ग भेद की किसी मान्यता को कोई स्थान न था। सबको विकास का समान अवसर और अधिकार है, यह जीव-साम्य का बाह्य पहलू था। सब में जीने.की समान इच्छा है, सबको प्राण समान-प्रिय हैं, इसलिए किसी को सताने और मारने का भी हमें अधिकार नहीं है। यह उस जीव-साम्य का आंतरिक पहल था और जिसे समझाना ही उस क्रांति का एकमात्र उद्देश्य था। _ भाषा के संबंध में लोक में एक विशेष मान्यता बद्धमूल हो रही थी। संस्कृत-भाषा धार्मिकवाङ्मय और आभिजात्य-वर्ग के लिए अनिवार्य मानी जाती थी। भाषा के इस व्यामोह ने स्त्रियों और शूद्रों के विरुद्ध घृणा का वातावरण बना दिया था। इस व्यामोह ने अन्य भाषाओं का विकास अवरुद्ध कर दिया था। भगवान् महावीर ने लोकभाषा 'प्राकृत' में उपदेश देकर भाषाविशेष के प्रति व्यामोह को भंग कर दिया और यह समझा दिया कि भाषा का महत्त्व भावों को अभिव्यक्त करने तक है, अधिक कुछ नहीं। इसीप्रकार सत्य के संबंध में भी एक जड़ता व्याप्त थी। एक वर्ग की मान्यता थी कि जो उनका है, वही सत्य है और सब मिथ्या है।' इसतरह सत्य को अपनी मान्यताओं से जकड़कर पंगु बना दिया था। सत्य निश्चित-ग्रंथों में ही उपलब्ध है, इस मान्यता से सत्य के अन्वेषण और शोध को कोई अवकाश ही नहीं रह गया था। महावीर ने कहा “सत्य व्यापक है, सापेक्ष है और उनकी मान्यताओं के बाहर भी वह मिल सकता है।" यह दृष्टि थी सत्य शोध की, अनेकान्त और स्याद्वाद की। ईश्वरवाद की मान्यता ने लोगों को भाग्यवादी और मनोवैज्ञानिक रूप से पराधीन-मनोवृत्ति वाला बना दिया था। महावीर ने कहा—“सारे प्राणियों में अनन्त शक्ति निहित है। उसका उद्घाटन करना प्राणी के अपने पुरुषार्थ पर निर्भर है। यदि उसे अपनी शक्ति का भान हो जाए और अपने चरम-विकास का संकल्प दृढ़ हो जाए, तो वह कर्मों के फल को बदल सकता है, और कर्मों का नाश भी कर सकता है।" भगवान् पार्श्वनाथ को निर्वाण हुए अभी केवल ढाई सौ वर्ष ही व्यतीत हुए थे, किन्तु इस काल में वैदिक-ऋषियों ने पूरी शक्ति से हिंसामूलक-यज्ञों और क्रियाकाण्डों का प्रचार किया। फलत: स्थान-स्थान पर यज्ञ होने लगे और उनमें असंख्य-पशुओं का होम किया 40 36 प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2001

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