Book Title: Prakrit Vidya 2001 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 37
________________ खिरती और भगवान का गणधर बनने की पात्रता केवल इन्द्रभति गौतम में है। यह विचार करके इन्द्र वृद्ध ब्राह्मण का रूप धारण करके ब्राह्मण-समाज के शीर्षस्थ विद्वान् इन्द्रभूति गौतम के आवासीय गुरुकुल में जा पहुँचा। वहाँ पाँच सौ शिष्य अध्ययनरत थे। इन्द्र ने गौतम को नमस्कार किया और बोला-"पूज्यवर ! मेरे गुरुदेव ने मुझे एक गाथा बताई थी। वह मेरी समझ में नहीं आई है। आपकी कीर्ति सुनकर मैं आपके पास आया हूँ। कृपाकर आप उसका अर्थ बता दीजिये।" इन्द्र ने जो गाथा बताई, गौतम उसे देखकर असमंजस में पड़ गये और बोले-“मुझे अपने गुरु के पास ले चलो। मैं उन्हीं के सामने तुम्हें अर्थ समझाऊँगा।" ___इन्द्रभूमि गौतम अपने पाँच सौ शिष्यों के साथ इन्द्र के साथ चल दिए और राजगृह' के बाहर 'विपुलाचल' पर पहुँचे। वहाँ इन्द्रभूति ने समवसरण के प्रवेशद्वार से जैसे ही प्रवेश किया, उनकी दृष्टि सामने खड़े मानस्तंभ के ऊपर पड़ी। इस मातस्तंभ में मानगर्वित जनों के मान को गलित करने की अद्भुत क्षमता थी। उन्होंने देखा, तो देखते ही रह गये। उनके भावों में प्रतिक्षण परिवर्तन हो रहे थे। उनका ज्ञानमद विगलित हो रहा था। वे आगे बढ़े और जब उन्हें गन्धकुटी में विराजमान भगवान् के दर्शन हुए, वे विनय और भक्ति की साकार मूर्ति बने हुए भगवान् के चरणों में प्रणिपात करके बोले "भगवन् ! मैं ज्ञान के • अहंकार में सज्ज्ञान को भूल गया था। अब मुझे अपने चरणों में शरण दीजिए।” यों कहकर उन्होंने मुनि-दीक्षा ले ली। उस समय उनके भाव इतने निर्मल थे कि उन्हें तत्काल अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान प्राप्त हो गया। वे भगवान् के मुनिसंघ के मुख्य-गणधर बने। ___ इन्द्रभूति द्वारा मुनि-दीक्षा लेते ही 66 दिन रुकी हुई भगवान् की दिव्यध्वनि प्रगट हई— “गौतम ! तेरे मन में संदेह है कि जीव है या नहीं?" इस विषय को लेकर भगवान् की दिव्यध्वनि में जीवतत्व का विस्तृत-विवेचन हुआ। भगवान् का प्रथम-उपदेश श्रावण कृष्ण प्रतिपदा के प्रात:काल हुआ था। अत: यह दिवस 'वीरशासन जयन्ती' के रूप में मनाया गया। ___ इन्द्रभूति के पाँच सौ शिष्यों ने भी मुनि-दीक्षा ले ली। इसके बाद ब्राह्मण-समाज के मूर्धन्य विद्वान् अग्निभूति, वायुभूति, व्यक्त, सुधर्म, मण्डिक पुत्र, मौर्य पुत्र, अकम्पित, अचल भ्राता, मेतार्य और प्रभास अपने शिष्य-परिकर के साथ भगवान् को पराजित करने आये और भगवान् का शिष्यत्व स्वीकार करके मुनि बन गये। ये सभी भगवान् के गणधर बन गये। इनके शिष्य भी भगवान् के चरणों में मुनि बन गये, जिनकी कुल संख्या 4600 थी। उनका यह धर्मचक्र प्रवर्तन ही तीर्थप्रवर्तन था, जिसके कारण वे 'तीर्थकर' कहलाये। इसके बाद उन्होंने सम्पूर्ण देश में विहार करके अपने उपदेशों द्वारा धर्म-जागृति की। उन्होंने काशी, कोशल, कुसंध्य, अश्वष्ट, साल्व, त्रिगर्त, पांचाल, भद्रकार, पाटच्चर, भौम, मत्स्य, शूरसेन, कलिंग, कुरुजांगल, कैकेय, आजेय, कांबोज, वाल्हिक, यवनश्रुति, सिन्धु, प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2001 00 35

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