Book Title: Prakrit Vidya 2001 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 43
________________ अन्तरंग-भाव की यथावत् सुरक्षा बनी रहे। यह तभी सम्भव है, जब ग्रन्थ एवं ग्रंथकार की अन्तर्भावभूमि का मर्म भलीभाँति जान लिया जाये। इसके लिये गम्भीर साधना, विशाल प्रतिभा एवं सूक्ष्मदृष्टि की अत्यावश्यकता है। पण्डितजी साहित्य-साधना के मार्ग को अच्छी तरह समझते थे, इतिहास जानता है कि किसप्रकार उन्होंने जीवन-भोगों को तिलांजलियाँ दे दी। उनकी साहित्य-लेखन की तन्मयता इसी से जानी जा सकती है कि उन्हें भोजन में लोने-अलोने का भेदभाव न रहा था। टोडरमल जी के साधनापूर्ण जीवन को देखकर हमें 'भामती के लेखक पंडित वाचस्पति मिश्र की पुण्य-स्मृति आ जाती है, जिन्होंने अपनी साहित्य-साधना के समय लगातार बारह वर्षों तक रात-दिन, जाड़ा-गर्मी-बरसात, भूख-प्यास एवं निद्रा-अनिद्रा का भेदभाव भूला दिया था। पण्डितप्रवर ने भी ऐसी ही कठोर-साधना के बाद गोम्मटसारादि की विशाल टीकायें लिखी हैं। तब मर्मभेद करने में भला वे क्यों समर्थ न हों? लोकोत्तर प्रतिभा के धनी निरभिमानी व्यक्तित्व पण्डितजी का विद्याध्ययन ढाई वर्ष की आयु से प्रारम्भ हुआ। उसी समय से अपनी अद्भुत प्रतिभा एवं स्मरणशक्ति से उन्होंने अपने गुरुजनों को आश्चर्यचकित कर दिया। 'जैनेन्द्र महाव्याकरण' का अध्ययन 10-11 वर्ष की आयु में कर लिया और इसी समय मुलतान की जैनसमाज के नाम उन्होंने 'रहस्यपूर्ण चिट्ठी' लिखी। 14 वर्ष की आयु में 'गोम्मटसार' जैसे आगम-ग्रन्थ की वचनिका लिखी। आजकल 14 वर्ष की उम्र में बच्चों के ज्ञान से तुलना कर पर यह स्पष्ट हो जाता है कि उन्हें कैसी दिव्य-प्रतिभा प्राप्त थी। उनका पाण्डित्य क्रमश: निखरता गया और यश भी गगन चूमने लगा। सोना देखकर चाहे सुन्नू हो या मुन्न, सभी के मुख में पानी आ जाता है, फिर उसे राज-सम्मान भी मिलने लगे, तब क्या कहना; किन्तु ऐसे लोग प्राय: अहंकारी बन जाते हैं और चन्द्रलोक से बातें करते हैं। लेकिन एक सच्चे तपस्वी एवं मूक-साधक की स्थिति इसके विपरीत होती है। टोडरमलजी ज्ञान की सार्थकता विनयगुण, शीलरूप, भद्र-परिणाम एवं आत्मानुशासन से मानते थे। उन्होंने अपने पाण्डित्य एवं यशोवृद्धि के कारण कभी भी अभिमान नहीं किया। त्रिलोकसार' जैसे करणानुयोग के कठिन-ग्रंथ की सुन्दर एवं सुबोध-टीका लिखकर भी उन्होंने अपने को मन्दमति ही माना है। यथा—“इस शास्त्र की संस्कृत टीका पूर्वे भई है, तथापि तहां संस्कृत, गणितादिक का ज्ञान बिना प्रवेश होइ सकता नाहीं। तातें स्तोक ज्ञानवालों के त्रिलोक के स्वरूप का ज्ञान होने के अर्थि तिस ही अर्थकों भाषाकरि लिखिए हैं या विर्षे मेरा कर्तव्य इतना ही है जो क्षयोपशम के अनुसारि तिस शास्त्र का अर्थकों जानि धर्मानुरागत औरनि के जानने के अर्थि जैसे कोई मुखतें अक्षर उच्चारि करि देशभाषारूप व्याख्यान करे, तैसें मैं हस्ततें अक्षरनि की स्थापना कर लिखोंगा। बहुरि छंदनि का जोड़ना नवीन युक्ति अलंकारादि का प्रकट करना इत्यादि नवीन-ग्रन्थकारकनि के कार्य हैं, तेतौ मोतें बने ही नांहीं । तात ग्रन्थ का कर्तापना मेरे है नाहीं।" प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2001 0041

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