Book Title: Prakrit Vidya 2001 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 44
________________ साहित्यिक मर्यादाओं के प्रतिपालक साहित्य के क्षेत्र में जिस नैतिक मर्यादा एवं साहित्यिक ईमानदारी की आवश्यकता है, वे श्रद्धालु मन से उनके प्रतिपालक थे। जो विषय उन्हें अधिक स्पष्ट नहीं होता था, अथवा जिस विषय पर वे अधिक प्रकाश नहीं डाल पाते थे; उस विषय में वे अपनी कमजोरी व्यक्त कर क्षमायाचना कर लेते थे । उन्होंने 'त्रिलोकसार' की भूमिका ( पृ० 3) में लिखा है : – “इस श्रीमत् त्रिलोकसार नाम शास्त्र के सूत्र नेमिचन्द्र नामा सिद्धान्तचक्रवर्ती करि विरचित है, तिनकी संस्कृत - टीका का अनुसार लेइ इस भाषा - टीका - विषै अर्थ लिखोंगा । कहीं कोई अर्थ न भासैगा ताकों न लिखोंगा। कहीं समझने के अर्थ बधाय करि लिखोंगा । तहां ऐसें यहु टीका बनेगी, ता विषै जहां चूक जानों, संवारि शुद्ध बुधजन करियो । छद्मस्त के ज्ञान सावर्ण हो हैं, तातैं चूक भी परै । जैसे जाको थोरो सूझै अर वह कहीं विषय मार्ग-विषै स्खलित होइ, तौ बहुत सूझनेवाला वांकी हास्य न करे .... ऐसे विचारतें इस टीका करने विषै मेरे उत्साह ही वर्ते है । " निस्सन्देह ही महाकवि बनारसीदास जी, जिन्होंने कि अपने हिन्दी के सर्वप्रथम जीवनचरित 'अर्धकथानक' में अपनी अच्छी-बुरी सभी बातें विस्तारपूर्वक लिखकर अपनी साहित्यिक ईमानदारी का परिचय दिया है और साहित्य - जगत् का ध्यान आकर्षित किया है, इसीप्रकार पं० टोडरमलजी भी उसी श्रेणी के प्रतिभा - पुत्र हैं। इस दिशा में वे नवीन पीढ़ियों के लिये आदर्श हैं । यशोगाथा दिग्दिगन्त में समा गई समाज उन्हें किसप्रकार अपना शिरोमणि मानता था तथा उनकी साधना एवं उपदेशामृत के पान करने हेतु लालयित रहता था, इसके उल्लेख उनके समकालीन साधर्मी भाई रायमल्लजी ने किये हैं। उन्हें पढ़ने से तथा उनकी 'रहस्यपूर्ण चिट्ठी' की लोकप्रियता से विदित होता है कि उनके यश की सुरभि अतिशीघ्र ही जयपुर की परिधि लांघकर पंचनद के अंचल में मुलतान तक तथा वहाँ से मौसमी मानसूनों के साथ पूर्व, उत्तर एवं दक्षिण भारत तक पहुँच गई। वह सुरभि आज भी दिग्दिगन्त में व्याप्त है, किन्तु सोनगढ़ उनका केन्द्र बन रहा है। सौराष्ट्र ने निश्चयनयवाद के इस महान् वक्ता की जो प्रतिष्ठा की है, वह उनके अनुरूप ही है। उसने अपने को सौभाग्य से सुशोभित किया है। गोम्मटसार - पूजा का रहस्य ‘गोम्मटसार' की पूजा पण्डितजी ने जिस तन्मयता के साथ लिखी, वह भी एक रहस्य है। उक्त पूजा के माध्यम से आचार्यप्रवर ने गौतम गणधर एवं उनकी परवर्ती आचार्य-परम्परा, समस्त द्वादशांगवाणी आदि की भाव-विभोर होकर पूजा की है। जिसप्रकार 'ओम्' के उच्चारण से पंच-परमेष्ठी एवं सारे ज्ञान-विज्ञान का एक साथ स्मरण हो जाता है, पण्डित जी की दृष्टि में 'गोम्मटसार' के प्रति भी वही विराट कल्पना थी । प्राकृतविद्या�अक्तूबर-दिसम्बर '2001 0042

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