Book Title: Prakrit Vidya 2001 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 28
________________ - 1 'वाटनगर' के इस ज्ञानपीठ की स्थापना का श्रेय संभवतया 'पंचस्तूप - निकाय' (जो कालान्तर में 'सेनसंघ' के नाम से प्रसिद्ध हुआ) के दिगम्बराचार्यों को ही है । ईस्वी सन् के प्रारम्भ के आसपास हस्तिनापुर, मथुरा अथवा किसी अन्य स्थान के प्राचीन पाँच जैनस्तूपों से संबंधित होने के कारण मुनियों की यह शाखा 'पञ्चस्तूपान्वय' कहलाई । पाँचवीं शती ई० में इसी स्तूपान्वय के एक प्रसिद्ध आचार्य गुहनन्दि ने वाराणसी से बंगाल-देशस्थ 'पहाड़पुर' की ओर विहार किया था, जहाँ उनके शिष्य - प्रशिष्यों ने 'बटगोहाली' का प्रसिद्ध संस्थान स्थापित किया था। छठी शती में इसी अन्वय के एक आचार्य वृषभनन्दि की शिष्य-परम्परा में सातवीं शती के उत्तरार्ध में संभवतया श्रीसेन नाम के एक आचार्य हुए और संभवतया इन श्रीसेन के शिष्य चन्द्रसेनाचार्य थे, जिन्होंने आठवीं शती ई० के प्रथम पाद के लगभग राष्ट्रकूटों के सम्भावित उत्कर्ष को लक्ष्य करके वाटनगर की बस्ती के बाहर स्थित 'चंदोर पर्वतमाला' की इन चाम्भार - लेणों में उपरोक्त ज्ञानपीठ की स्थापना की थी । सम्पूर्ण नासिक्य-क्षेत्र तीर्थकर - चन्द्रप्रभु से संबंधित तीर्थक्षेत्र माना जाता था और इस स्थान में तो स्वयं धवलवर्ण चन्द्रप्रभु का तथाकथित आणतेन्द्र - निर्मित धवल - भवन विद्यमान था । 'गजपन्था' और 'मांगी-तुंगी' के प्रसिद्ध प्राचीन जैनतीर्थ भी निकट थे, 'एलाउर' या 'ऐलपुर' (एलौरा) का शैव- संस्थान और 'कन्हेरी' का बौद्ध-संस्थान भी दूर नहीं राष्ट्रकूटों की प्रधान सैनिक छावनी भी कुछ हटकर उसी प्रदेश के 'मयूरखंडी' नामक दुर्ग में थी और तत्कालीन राजधानी 'सूलुभंजन' (सोरभंज ) भी नातिदूर थी । इसप्रकार यह स्थान निर्जन और प्राकृतिक भी था, प्राचीन पवित्र - परम्पराओं से युक्त था, राजधानी आदि के झमेले से दूर भी, किन्तु शान्ति और सुरक्षा की दृष्टि से उसके प्रभावक्षेत्र में ही था। अच्छी बस्ती के नैकट्य से प्राप्त-सुविधाओं का भी लाभ था और उसके शोरगुल से असम्पृक्त भी रह सकता था। एक महत्त्वपूर्ण ज्ञानकेन्द्र के लिए यह आदर्श स्थिति थी। चन्द्रसेनाचार्य के पश्चात् उनके प्रधान - शिष्य आर्यनन्दि ने संस्थान को विकसित किया। संभवतया इन दोनों ही गुरु-शिष्यों की यह आकांक्षा थी कि यह संस्थान एक विशाल ज्ञानकेन्द्र बने और इसमें 'षट्खंडागम' आदि आगमग्रन्थों पर विशेषरूप से कार्य किया जाये। संयोग से आर्यनन्दि को वीरसेन के रूप में ऐसे प्रतिभासम्पन्न सुयोग्य शिष्य की प्राप्ति हुई, जिसके द्वारा उन्हें अपनी चिराभिलाषा फलवती होती दीख पड़ी। वीरसेन, जो सम्भवतया स्वयं राजकुलोत्पन्न थे और यह संभावना है कि राजस्थान के सुप्रसिद्ध चित्तौड़गढ़ के मोरी (मौर्य) राजा धवलप्पदेव के कनिष्ठ- ठ - पुत्र थे, गुरु की अभिलाषा को पूर्ण करने के लिए सन्नद्ध हो गये। गुरु की प्रेरणा से वह आगमों के विशिष्ट - ज्ञानी एलाचार्य की सेवा में पहुँचे, जो उस समय चित्रकूटपुर (उपरोक्त चितौड़) में ही निवास करते थे, और उनके समीप उन्होंने 'कम्मपयडिपाहुड' आदि आगमों का गंभीर अध्ययन किया । तदनन्तर वह अपने 'वाटनगर' के संस्थान में वापस आये और आठवीं शती ई० के मध्य के लगभग गुरु के निधनोपरान्त उक्त संस्थान 26 प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर 2001

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