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ने उदार-अनुदान दिये। उस युग में पच्चीसियों उद्भट विद्वानों ने प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश और कन्नड़ की विविध-विषयक महत्त्वपूर्ण-कृतियों से भारती के भंडार की प्रभूत श्रीवृद्धि की। विभिन्न-धार्मिक सम्प्रदाय साम्राज्य में साथ-साथ फल-फूल रहे थे। उनके अनुयायीविद्वानों में परस्पर मौखिक वाद-विवाद भी होते थे, बहुधा स्वयं सम्राट् की राजसभा में ही, और साहित्य द्वारा भी खंडन-मंडन होते थे, किन्तु ये वाद-विवाद और खंडन-मंडन बौद्धिक स्तर से नीचे नहीं उतरते थे, उनमें प्राय: कटुता नहीं होती थी और न विद्वेष या वैमनस्य भड़काते थे। धार्मिक-अत्याचार और बलात् धर्म-परिवर्तन उस युग में अज्ञात थे। सभी सम्प्रदाय लोकहित, जनजीवन के उत्थान और राष्ट्र के अभ्युदय में यथाशक्ति सक्रियसहयोग देते थे ।
उपलब्ध प्रमाणाक्षरों से स्पष्ट है कि राष्ट्रकूट - साम्राज्य में जैनधर्म की स्थिति पर्याप्त स्पृहणीय थी। उसे राज्य एवं जनता, दोनों का ही प्रभूत प्रश्रय एवं समादर प्राप्त था । राष्ट्रकूट-इतिहास के विशेषज्ञ डॉ० अनन्त सदाशिव अलतेकर के अनुसार "उस काल में दक्षिणापथ की सम्पूर्ण जनसंख्या का ही कम से कम तृतीयांश जैन-धर्मावलम्बी था । इस धर्म के अनुयायियों में प्राय: सभी वर्गों, जातियों एवं वर्गों का प्रतिनिधित्व था— उनमें राज्यवंश के स्त्री-पुरुष भी थे, अनेक सामन्त- सरदार, सेनापति और दण्डनायक भी थे, ब्राह्मण, पंडित और व्यापारी एवं व्यवसायी भी थे, सैनिक और कृषक भी थे, शिल्पी, कर्मकार और दलित भी थे। जैनाचार्यों ने भी इस सुयोग का लाभ उठाकर स्वधर्म को राज्य एवं समाज की आवश्यकताओं के अनुरूप ढालने में और उसे सचेतन एवं प्रगतिशील बनाने में कोई कसर नहीं उठा रखी। फलस्वरूप जनजीवन के अभ्युत्थान में वे प्रमुख भाग लेने में समर्थ हुए। " डॉ० अल्तेकर के मतानुसार “सार्वजनिक शिक्षा के क्षेत्र में तो उनका सक्रिय-योगदान सम्भवत: सर्वोपरि था, जिसका एक प्रमाण यह है कि आज भी दक्षिण भारत में बालकों के शिक्षारम्भ के समय जब उन्हें वर्णमाला सिखाई जाती है, तो सर्वप्रथम उन्हें 'ॐ नमः सिद्धेभ्यः' नाम का मंगल सूत्र रटाया जाता है, न कि ब्राह्मण - परम्परा का 'श्री गणेशाय नमः’। ‘ॐ नमः सिद्धेभ्यः' विशिष्टतया जैन-मन्त्र है, हिन्दू, बौद्ध आदि अन्य धर्मों से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। इसी आधार पर डॉ० चिन्तामणि विनायक वैद्य ने भी यह कथन किया है कि उस युग में सार्वजनिक - शिक्षा के क्षेत्र पर जैन - शिक्षकों ने ऐसा पूर्ण एवं व्यापक नियन्त्रण स्थापित कर लिया था कि जैनधर्म की अवनति के उपरान्त भी हिन्दूजन अपने बालकों का शिक्षारम्भ उसी जैन- - मन्त्र से कराते रहे हैं । वस्तुतः उत्तर भारत के अनेक-भागों की प्राचीन-पद्धति की प्राथमिक पाठशालाओं (चटसालों आदि) में भी बालकों का शिक्षारम्भ उसी जैन-मन्त्र के विकृत रूप 'ओ-ना-मा-सीधम' से होता आया है, जिसका अर्थ भी प्रायः न पढ़नेवाले ही समझते हैं और न पढ़ानेवाले ही। इसीप्रकार, जैन- व्याकरण 'कातन्त्र' का मंगल-सूत्र स्वयं 'सिद्धो वर्णसमाम्नाय :' भी अपने विकृतरूप 'सरदा वरना
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प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2001