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के अध्यक्ष या कुलपति बने और आगमों की अपनी विशाल टीकाओं के निर्माण-कार्य में एकनिष्ठ होकर जुट गये।
। स्वामी वीरसेन को प्राकृत और संस्कृत उभय-भाषाओं पर पूर्ण-अधिकार था तथा सिद्धान्त, छन्द, व्याकरण, ज्योतिष और प्रमाण-शास्त्रों में वह परम-निष्णात थे। उनके शिष्य जिनसेन ने उनके लिए कवि-चक्रवर्ती' विशेषण भी प्रयुक्त किया है। वीरसेन अपने समय के सर्वोपरि 'पुस्तक-शिष्य' समझे जाते थे, जिसका अर्थ है कि उन्होंने उस समय उपलब्ध प्राय: समस्त साहित्य पढ़ डाला था। यह तथ्य उनकी कृतियों में उपलब्ध अनगिनत-संदर्भ-संकेतों एवं उद्धरणों से भी स्पष्ट है। इन आचार्यपुंगव ने जो विशाल साहित्य-सृजन किया, उसमें षट्खण्डागम' के प्रथम पाँच-खण्डों पर निर्मित 'धवला' नाम की 72000 श्लोक परिमाण महती टीका, छठे खण्ड 'महाबन्ध' का 30000 श्लोक-परिमाण सटिप्पण-सम्पादन 'महाधवल' के रूप में, कसाय-पाहुड की 'जयधवल' नाम्नी टीका का लगभग तृतीयांश जो लगभग 26500 श्लोक परिमाण है, 'सिद्ध-भूपद्धति' नाम का गणित-शास्त्र तथा दूसरी शती ई० के यतिवृषभाचार्यकृत तिलोयपण्णत्ति' का किसी जीर्ण-शीर्ण प्राचीन-प्रति पर से उद्धार करके बनाया उसका अन्तिम संस्करण तो है ही, अन्य कोई रचना भी रही हो, तो इसका अभी पता नहीं चला। इसमें सन्देह नहीं कि उन्होंने अपने संस्थान में एक अत्यन्त समृद्ध ग्रन्थ-भंडार संग्रह किया होगा। लेखन के लिए टनों ताड़पत्र तथा अन्य लेखन-सामग्री की आवश्यकता-पूर्ति के लिए भी वहाँ इन वस्तुओं का एक अच्छा बड़ा कारखाना होगा। अपने कार्य में तथा संस्थान की अन्य गतिविधियों में योग देनेवाले उनके दर्जनों सहायक और सहयोगी भी होंगे। उनके सधर्मा के रूप में जयसेन का और प्रमुख-शिष्यों के रूप में दशरथ गुरु, श्रीपाल, विनयसेन, पद्मसेन, देवसेन और जिनसेन के नाम तो प्राप्त होते ही हैं। अन्य समकालीन विद्वानों में उनके दीक्षागुरु आर्यनन्दि और विद्यागुरु एलाचार्य के अतिरिक्त दक्षिणापथ में गंगनरेश श्रीपुरुप मुत्तरस शत्रुभयंकर (726-776 ई०) द्वारा समादृत था। निर्गुडराज के राजनीति-विद्यागुरु विमलचन्द्र, राष्ट्रकूट-कृष्ण-प्रथम की सभा में वाद-विजय करनेवाले परवादिमल्ल अकलंकदेव के प्रथम टीकाकार अनन्तवीर्य-प्रथम, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक अष्टसहस्री आदि के कर्ता स्वामी विद्यानन्दि, हरिवंशपुराणकार जिनसेनसूरि, रामायण आदि के रचयिता अपभ्रंश के महाकवि स्वयंभू आदि उल्लेखनीय हैं। चित्तौड़-निवासी महान् श्वेताम्बराचार्य याकिनीसूनु हरिभद्रसूरि भी इनके समकालीन थे। भट्टाकलंकदेव को अपनी बाल्यावस्था में स्वामी वीरसेन ने देखा-सूना हो सकता है, उनका स्मरण वीरसेन पूज्यपाद' नाम से करते थे। स्वामी वीरसेन ने 'धवला' टीका की समाप्ति सन् 781 ई० (विक्रम सं० 838) में की थी और 793 ई० के लगभग उनका स्वर्गवास हो गया प्रतीत होता है। इसमें संदेह नहीं है कि वाटनगर' में ज्ञानकेन्द्र को स्वामी वीरसेन ने उन्नति के चरम-शिखर पर पहुँचा दिया था।
प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2001
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