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सवा मनाया' में आज भी पाठशालाओं में प्रचलित पाया जाता है।
अतएव इस विषय में सन्देह नहीं है कि उस काल में उस प्रदेश में ऐसे अनगिनत जैनसंस्थान थे जो शिक्षा केन्द्रों के रूप में चल रहे थे और उनके कोई-कोई तो ऐसे विशाल विद्यापीठ या ज्ञानकेन्द्र थे, जिनसे ज्ञान की किरणें चतुर्दिक प्रसरित होती थीं।
प्राय: प्रत्येक वसति (जिनमंदिर) से सम्बद्ध जो पाठशाला होती थी, उसमें धार्मिक एवं संतोषी-वृत्ति के जैन-गृहस्थ शिक्षा देते थे, जिनमें बहुधा गृह-सेवी या गृह-त्यागी ब्रह्मचारी, ब्रह्मचारिणियाँ आदि भी होते थे। क्षुल्लक, ऐलक और निर्ग्रन्थ-मुनि भी जब-जब अपने विहार-काल में वहाँ निवास करते, विशेषकर वर्षावास या चातुर्मास-काल में, तो वे भी इस शिक्षण में योग देते थे। किन्तु जो विशाल ज्ञानपीठ होते थे, उनका नियन्त्रण एवं संचालन दिग्गज निर्ग्रन्थाचार्य ही करते थे और वहाँ अपने गुरु-बन्धुओं, शिष्यों-प्रशिष्यों के वृहत् परिवार के साथ ज्ञानाराधना करते थे। अपनी चर्चा के नियमानुसार ये निष्परिग्रही तपस्वी दिगम्बर-मुनिजन समय-समय पर यत्र-तत्र अल्पाधिक विहार भी करते रहते थे, किन्तु स्थायी-निवास उनका प्राय: वही स्थान होता था। इन विद्यापीठों में साहित्य-साधना के अतिरिक्त तात्त्विक, दार्शनिक एवं धार्मिक ही नहीं, लौकिक-विषयों, यहाँ तक कि राजनीति का भी शिक्षण दिया जाता था। साधुओं के अतिरिक्त विशेष-ज्ञान के अर्थी गृहस्थ-छात्र, जिनमें बहुधा राजपुरुष भी होते थे, इस शिक्षण का लाभ उठाते थे। इन केन्द्रों में नि:शुल्कआवास एवं भोजन और सार्वजनिक-चिकित्सा की भी बहुधा व्यवस्था रहती थी।
राष्ट्रकूट-काल और साम्राज्य के प्रमुख-ज्ञानपीठों में संभवतया सर्वमहान् वाटग्राम' का ज्ञानकेन्द्र था। वराड प्रदेश' (बरार) में तत्कालीन नासिक-देश (प्रान्त) के 'वाटनगर' नामक विषय (जिले) का मुख्य-स्थान यह वाटग्राम, वाटग्रामपुर या वाटनगर था, जिसकी पहचान वर्तमान महाराष्ट्र राज्य के नासिक जिले के 'डिंडोरी' तालके में स्थित 'वानी' नामक ग्राम से की गई है। नासिक नगर से पाँच मील उत्तर की ओर 'सतमाला' अपरनाम 'चन्दोर' नाम की पहाड़ीमाला है. जिसकी एक पहाड़ी पर चाम्भार-लेण' नाम से प्रसिद्ध एक प्राचीन उत्खनित जैन-गुफा-श्रेणी है। यह अनुमान किया जाता है कि प्राचीनकाल में ये गुफायें जैन-मनियों के निवास के उपयोग में आती थीं। इस पहाड़ी के उस पार ही वानी' नाम का गाँव बसा हुआ है, जहाँ कि उक्त काल में उपरोक्ट 'वाट नगर' बसा हुआ था। बहुसंख्यक गुफाओं के इस सिलसिले को देखकर यह सहज ही अनुमान होता है कि यहाँ किसी समय एक महान् जैन-संस्थान रहा होगा। वस्तुत: राष्ट्रकूट-युग में रहा ही था। उस समय इस संस्थान के केन्द्रीय-भाग में अष्टम-तीर्थंकर चन्द्रप्रभु का एक मनोरम-चैत्यालय भी स्थित था, जिसके सम्बन्ध में उस काल में भी यह किंवदन्ती प्रचलित थी कि वह आणतेन्द्र द्वारा निर्मापित है।' यह पुनीत-चैत्यालय ही संभवतया संस्थान के कुलपति का आवास-स्थल था।
प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2001
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