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है कि इस काल में इस प्रदेश में सेनगण के गुरुओं का अभाव और द्रविडसंघ का प्राबल्य हो गया था। गुणभद्र या लोकसेन के वर्धमान गुरु नामक किसी शिष्य द्रविड़संघ से अपना सम्बन्ध जोड़ लिया हो और अपने परम्परा-गुरु वीरसेन के नाम पर वीरगण' स्थापना करके इस संस्थान का अधिकार अपने हाथ में लिया हो। वजीरखेडा' का प्राचीन नाम भी वीरखेड' या 'वीरग्राम' रहा बताया जाता है, वडनगरपत्तन' तो 'वाटग्राम' से अभिन्न ही प्रतीत होता है, 'चन्द्रपुर' या चन्द्रपुर ग्राम' की कोई नवीन बस्ती पूर्वोक्त चन्द्रप्रभु-चैत्यालय के इर्द-गिर्द विकसित हो गई हो सकती है।
यों इस महान् धर्मकेन्द्र की प्रसिद्धि, संभवतया उन देवायतनों आदि तथा कतिपय संस्थाओं की विद्यमान भी, कम से कम अगले सौ-डेढ़ सौ वर्ष-पर्यन्त बनी रही। सन् 1043 ई० (वि०सं० 1100) में धारानगरी प्रसिद्ध महाराज भोज (1006-1050 ई०) के समय अपना अपभ्रंश 'सुदर्शनचरित' पूर्ण करनेवाले आचार्य नंदि ने अपने 'सकल विधि-विधान काव्य' में एक स्थान पर लिखा है कि "उत्तम एवं प्रसिद्ध वराड देश के अन्तर्गत कीर्ति लक्ष्मी सरस्वती (के संयोग) से मनोहर वाटग्राम के महान् महल शिखर (उत्तुंग भवन) में आठवें जिनेन्द्र चन्द्रप्रभु विराजते थे, वीरसेन-जिनसेन देव 'धवल, जयधवल और महाबन्ध' नाम के तीन शिव (मोक्षमार्गी) सिद्धान्त-ग्रन्थों की रचना भव्यजनों के लिए सुखदायी की थी। वहीं सिद्धिरमणी के हार पुंडरीक कवि धनंजय हुये थे और स्वयंभु (कवि) ने भुवन को रंजायमान किया था।" इस उल्लेख से प्रतीत होता है कि नयनंदि ने स्वयं इस साहित्यिकतीर्थ की यात्रा की थी और उसकी स्तुति में उपरोक्त-वाक्य लिखे थे। हमारी इस धारणा की पुष्टि भी इस कथन से हो जाती है कि महाकवि स्वयंभु, जो वीरसेन के समकालीन तो थे ही और उन्हीं की भाँति राष्ट्रकूट सम्राट् ध्रुव धारावर्ष से सम्मान प्राप्त थे, स्वयं वीरसेन के गृहस्थ-शिष्य एवं साहित्यिक-कार्य के सहयोग रहे थे। यह धनञ्जय भी, संभव है जिनका अपरनाम पुंडरीक हो, भोजकालीन धनञ्जय (श्रुतकीर्ति) के पूर्ववर्ती हैं और वीरसेन के ज्येष्ठ समकालीन रहे हो सकते हैं, क्योंकि उनकी 'नाममाला' के उद्धरण वीरसेन ने दिये हैं। अन्य भी अनेक न जाने कितने विद्वानों का, जिनका नाम ऊपर लिया जा चुका है अथवा नहीं भी लिया गया, वाटनगर' के इस संस्थान से प्रत्यक्ष या परोक्ष संबंध रहा, कहा नहीं जा सकता। वह अपनी उपलब्धियों एवं सक्षमताओं के कारण विद्वानों का आकर्षण-केन्द्र भी रहा होगा और प्रेरणा स्रोत भी। राष्ट्रकूट-युग के इस सर्वमहान् ज्ञानकेन्द्र एवं विद्यापीठ की स्मृति भी आज लुप्त हो गई है, किन्तु इसमें सन्देह नहीं है कि अपने समय में यह अपने समकालीन नालन्दा और विक्रमशिला के सुप्रसिद्ध बौद्ध-विद्यापीठों को समर्थ चुनौती देता होगा। भारत के प्राचीन विश्वविद्यालयों में तक्षशिला, विक्रमशील और नालन्दा की ही भाँति यह 'वाटग्रामविश्वविद्यालय' भी परिगणनीय है।
-(साभार उद्धृत, अनेकान्त' साहू शान्तिप्रसाद जैन स्मृति-अंक)
प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2001
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