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भारतवर्ष का एक प्राचीन जैन-विश्वविद्यालय
-डॉ० ज्योतिप्रसाद्ग जैन
निर्गन्थ श्रमण-संस्कृति के इतिहास का प्रामाणिक ज्ञान न होने से न तो हमें अपने अतीत का गौरवबोध हो पाता है और न ही अपनी महती-परम्परा का वास्तविक-ज्ञान ही हो पाता है। स्वनामधन्य यश:काय मनीषी डॉ० ज्योतिप्रसाद जी जैन ने इस गहन शोधपूर्ण आलेख में 'वाटग्राम' के जैन-विश्वविद्यालय, उसकी गौरवशाली-परम्परा तथा ज्ञान-विज्ञान-महासिन्धु महाज्ञानी आचार्य वीरसेनस्वामी के द्वारा उसका कुलपतित्व ग्रहण करने का जो उल्लेख इसमें है; इससे इसकी महत्ता का स्पष्टबोध हो जाता है। कदाचित् जैन-मनीषियों में आज ऐसे गंभीर इतिहास-अन्वेषक होते और ऐसे समर्पितभाव से कार्य करते, तो न जाने कितने अनजाने रहस्य आज प्रकट होते और निर्ग्रन्थ श्रमण-संस्कृति की गरिमा प्रतिष्ठित होती।
साथ ही 'अनेकान्त' नामक शोधपत्रिका के वर्तमान कर्णधारों से भी निवेदन है कि वे निराधार पूर्वाग्रही आक्षेप-प्रत्याक्षेप की संकीर्णता से बचकर अपने प्राचीन अंकों में प्रकाशित ऐसी महत्त्वपूर्ण ज्ञान-सामग्री का क्रमश: पुनर्प्रकाशन भी करें, तो यह प्रतिष्ठित शोधपत्रिका पुन: अपने प्राचीन-गौरव को पाकर विद्वानों एवं जिज्ञासुओं में प्रतिष्ठित एवं स्पृहणीय बन जायेगी। तथा | समाज में नये विवादों की जगह उपयोगी दिशाबोध मिल सकेंगे। -सम्पादक
ईस्वी सन् की आठवीं शताब्दी में भारतवर्ष ने एकसाथ तीन साम्राज्यों का उदय देखा— दक्षिणापथ में राष्ट्रकूट', बिहार-बंगाल में 'पाल' और उत्तरापथ के मध्यप्रदेश (गंगा के दोआबे) में 'गुर्जर-प्रतिहार' । लगभग दो शताब्दी-पर्यन्त इन तीनों ही साम्राज्यों में सम्पूर्ण भारतवर्ष के एकच्छत्र शासन के लिए परस्पर प्रबल-प्रतिद्वन्द्विता एवं होड़ रही, किन्तु उक्त उद्देश्य में तीनों में से एक भी सफल न हो सका। तीनों की ही साथ-साथ स्वतन्त्र-सत्ता बनी रही। इतना अवश्य है कि उन तीनों में विस्तार, शक्ति एवं समृद्धि की दृष्टि से राष्ट्रकूटसाम्राज्य ही संभवतया सर्वोपरि रहा। राष्ट्रकूटों का सम्बन्ध दक्षिणापथ के अशोककालीन प्राचीन रट्ठिकों' के साथ जोड़ा जाता है, और यह अनुमान किया जाता है कि छठी-सातवीं शती में इनका मूल निवास-स्थान वराड' या 'वरट' (आधुनिक बरार' और प्राचीन 'विदर्भ') देश में स्थित 'लातूर' नामक स्थान था, जहाँ उस काल में वे पहले बनवासी' के कदम्बों के और तदनन्तर 'वातापी' के प्राचीन पश्चिमीय चालुक्य-नरेशों के अतिसामान्य
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प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2001