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उत्पत्ति होती रहती है; अत: उनके निराकरणार्थ एक पक्ष में उसे बाहर - १ र-भीतर से प्रक्षालित करते रहना चाहिए। यदि एक पखवाड़े के पश्चात् भी कमण्डलु का सम्प्रोक्षण नहीं किया गया, तो प्रतिक्रमण तथा उपवास लेना होगा ।'
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इसप्रकार के अनेक उदाहरण हैं, जो पिच्छिग्रहण की मर्यादा का निरूपण करते हैं और वैसे भी हैं जो अवधिज्ञानादि विशेष- स्थितियों में इसकी आवश्यकता का सर्वथा निराकरण करते हैं, तथा इस पर उत्पन्न हुए व्यामोह की 'यावच्च आर्तरौद्रं तावन्न मुंचति' कहकर भर्त्सना भी करते हैं। इन्हें परस्परर-विरोधी नहीं मान सकते। क्योंकि जो पिच्छिकमण्डलुग्रहण की आवश्यकता का निरूपण करते हैं, वे मुनिचर्या के विधिपरक सूत्र हैं और सम्यक् जिनलिंग को प्रमाणित करते हैं; किन्तु पिच्छिग्रहण मात्र से मोक्ष नहीं होता, अथवा पिच्छिकमण्डलु पर आसक्तिभाव नहीं रखना चाहिए – इत्यादि प्रतिपादन करनेवाले सूत्र हैं, वे मुनि के व्यामोहनिर्वतक हैं। हो सकता है, मोह तथा अज्ञान के प्रभाव से मुनि को अपने पिच्छिकमण्डलु पर व्यामोह उत्पन्न हो जाये, या शास्त्रज्ञान के अभाव में अथवा मूढआग्रह से वह पिच्छि को ही इतना महत्त्व देने लगे कि 'बस ! पिच्छि मिल गई, मानो मोक्ष मिल गया' – और ऐसा मानकर सम्यक्चारित्रपालन में शिथिलाचारी हो जाए, ऐसी स्थिति में उसे इन गाथाओं, श्लोकों तथा सूत्रों से संवित् मिलनी चाहिए कि पिच्छिग्रहण करने मात्र से कोई सम्यक्त्वी नहीं बन जाता।'
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सर्वस्वत्यागी के व्रतों की निर्दोष रक्षा के लिए ही इन निषेधसूत्रों का निर्माण किया गया है। क्योंकि परिग्रह का अर्थ विशाल - सम्पत्ति से ही गतार्थ नहीं होता, एक सूई भी मूर्च्छा (व्यामोह) का कारण हो सकती है और वह सूची का अभाव भी मूर्च्छाकारक होने से परिग्रह कहा जाएगा। ‘मूर्च्छा परिग्रहः' – यह सूत्र उपादानों की विपुलता को ही परिग्रह नहीं मानता, अपितु जिस वस्तु के लवमात्र ग्रहण से मूर्च्छा का उदय हो, वही परिग्रह है । तब व्यामोह कोने से पिच्छि भी मुनिचर्या की साधिका न होकर प्रत्यवायकारिणी हो सकती है। ‘परमात्मप्रकाश' की उक्ति है कि 'चेला - चेलियों का परिवार बढ़ाकर, पुस्तकों का प्रभूत संग्रह कर अज्ञानी को हर्ष होता है । किन्तु जो ज्ञानी है, वह इन परिग्रहों से शर्माता है तथा इन्हें राग और बन्धकारण मानता है। यदि त्यागी का मन चेला- चेलियों, पुस्तकों, पिच्छि- कमण्डलुओं, श्रावक-श्राविकाओं, आर्यिका क्षुल्लक - ऐलक - परिवारों में तथा चौकी - पट्टे - चटाई आदि में उलझा रहा, तो इनको लेकर रात-दिन उसे आर्त- रौद्र ध्यान में फँसना पड़ेगा। न निराकुलचर्या हो सकेगी न स्वाध्याय और सामायिक । जिस आत्मकल्याण के लिए मुनिदीक्षा ली, वे उद्देश्य कहीं मूर्च्छाओं में खो जायेंगे ।" ये परिग्रह त्यागी का पतन कराने में सहायक होकर उसे आत्ममार्ग से विस्मृत कर सकते हैं । त्यागी और रागी के मार्ग भिन्न-भिन्न हैं ।
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प्रसंगवश यहाँ यह लिखना अवसरोचित होगा कि त्यागियों को धन-सम्पन्न तथा स्वल्पवित्त, विशेष अथवा सामान्य श्रावकजनों के आगमन पर अपने को अधिक गौरवशिखरारूढ नहीं मानना चाहिए। उनका समभाव ही लोककल्याणकारक है । ऊँचे-नीचे आसनों की
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प्राकृतविद्या�अक्तूबर-दिसम्बर 2001
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