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पिच्छि और कमण्डलु
-आचार्य विद्यानन्द मुनिराज
अचेलत्वं च लुंचित्वं व्युत्सृष्टांग-सपिच्छकम् । एतदुत्सर्गलिंगं तु जगृहे मुनिपुंगवः । ।
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- ( आचार्य दामनन्दि, पुराणसार संग्रह 3/34, पृ० 40 ) अर्थ :वस्त्र-रहितता, केश - लुंचनता, अंग-नि: ने:स्पृहता और मयूर - - पिच्छिका स्वाभाविक चिह्नों को मुनियों में श्रेष्ठ उन तीर्थंकर ऋषभदेव ने ग्रहण किया। जैनसाधना जहाँ एक ओर बौद्धसाधना का उद्गम है, वहीं दूसरी ओर वह शैवमार्ग का भी आदिस्रोत है। ऋषभदेव और शिव के व्यक्तित्व में जो समानता है, वह भी यही इंगित करती है कि जैन और शैव-साधनायें किसी समय एक ही उत्स से फूटी होंगी । - ( रामधारी सिंह दिनकर, संस्कृति के चार अध्याय, पृ० 626 )
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दिगम्बर - मुनि के पास संयम तथा शौच के उपकरण के रूप में 'पिच्छि' और 'कमण्डलु' होते हैं । सर्वथा नग्न एवं 'अपरिग्रह - महाव्रती' मुनि को चर्या की निर्दोषता के रक्षार्थ इन्हें रखने की शास्त्राज्ञा है । पिच्छि और कमण्डलु मानो मुनि के स्वावलम्बन के दो हाथ हैं। प्रतिलेखन-शुद्धि के लिए पिच्छि की नितान्त आवश्यकता है, और पाणि-पाद- प्रक्षालन के लिए, शुद्धि के लिए कमण्डलु वाञ्छनीय है। पिच्छिका मयूरपंखों से बनायी जाती है; अन्य पंख पिच्छि के लिए उपादेय नहीं माने गये। क्योंकि मुनियों के लिए हिंसा, चौर्य, परिग्रह आदि सर्वथा निषिद्ध हैं और मयूरपंख ही ऐसे सुलभ हैं, जिन्हें वह उल्लिखित दोषों से बचते हुए ग्रहण कर सकते हैं। वह इसप्रकार कि मयूर वर्ष में एक बार अपनी जीर्ण-पक्षावली का त्यागकर प्रकृत्या नवीन पक्ष प्राप्त करता है; अतः समय पर बिना हिंसा उसे प्राप्त किया जा सकता है। वनों में विचरते हुए मुनियों को वृक्षों के नीचे पुष्कल-परिमाण में स्वयं पतित पंख अनायास मिल जाते हैं । ये पंख स्वयं मयूर द्वारा परित्यक्त अथ च भूमिपतित होते हैं; अतः इन्हें ग्रहण करने में चौर्यदोष भी नहीं लगता। तीसरी बात यह कि प्रतिवर्ष और पुष्कलमात्रा में अनायास मिलते रहने से यह आवश्यक नहीं कि इनको बटोरकर, संग्रहीत कर आगामी वर्षों के लिए संचित किया जाए, जिससे कि परिग्रहदोष की सम्भावना हो। इसके अतिरिक्त मयूरपिच्छ का लवभाग ( बालमय अग्रभाग ) इतना मृदु होता है कि प्रतिलेखन से
प्राकृतविद्या अक्तूबर
र-दिसम्बर 2001