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कवि का परिचय
रचना के प्रारम्भ में कवि ने मरस्वती को नमस्कार करते हुए अपना मामोल्लेख 'सो सधार पणमइ सरसुति' इस प्रकार किया है। इसलिये काव का नाम 'संधार' होना चाहिए, किन्तु अनेक स्थलों पर सधारु' नाम भी दिया हुआ है । अन्य प्रतियों में भी अधिकांश स्थलों पर 'सधार' नाम माया है इसलिये कवि का नाम 'सधारु' ही ठीक प्रतीत होता है। +कवि ने अपने जन्म से अप्रवाल जाति को विभूपित किया था। इनकी माता का नाम सुधन था जो गुण याली थी। पिता का नाम साह महराज था, अन्य प्रतियों में साहु महराज एवं समहराइ भी मिलता है। वे एरच्छ नगर में रहते थे। एरच्छ नगर के नाम एरछ, एरिछि, एलच, एयरकछ एवं एरस के पाठान्तर भेद से भी मिलते हैं। किन्तु इन सब में मूल प्रति वाला एरच्छ ही अधिक ठीक जान पड़ता है। इस नगर का उत्तर प्रदेश में होना अधिक सम्भव है। डा वासुदेवशरण अग्रवाल ने भी जैन सन्देश. आगर। के एक लेख में इसकी पुष्टि की है। नाइदाजी ने इस नगर को मध्य प्रदेश में होना माना है जो ठीक मालूम नहीं होता। उस समय उस नगर में बहुत से श्रावक लोग रहते थे जो दशलक्षण धर्म का पालन करते थे।
अपना परिचय देने के पश्चाद करि ने लिखा है कि जो भी प्रद्यन्न चरित को पढ़ेगा वही मरने के पश्चात् स्वर्ग में देवता के रूप में उत्पन्न होगा तथा अन्त में मुक्ति रूपी लक्ष्मी को प्राप्त करेगा। जो मनुष्य इसका श्रयम करेगा उसके अशुभ कर्म स्वयमेव दूर हो जायेंगे। जो मनुष्य इसको दूसरों को सुनावेगा उस पर प्रद्युम्न प्रसन्न होंगे । इसके अतिरिक्त इस ग्रन्थ को लिखाने वाले, लिखने वाला, पढ़ाने वाले सभी लोगों को अपार पुण्य की प्राप्ति होना लिखा है, क्योंकि प्रधुन का चरित पुण्य का भण्डार है । अन्त
में कवि ने अपनी लघुता प्रदर्शित करते हुए कहा है कि वह स्वयं कम बुद्धि : घाला है तथा अक्षर मात्रा का भेद नहीं जानता, इसलिये छोटी बड़ी मात्रा
+ महसामी कउ कायउ वखाणु, तुम पज्जुन पायउ निरवाणु ।
अगरवाल की मेरी जात, पुर अगरोए मुहि उतपाति ।। सुधा जणणी गुणवइ उर धारउ, सा महराज घरइ अवतरिउ । एछ नगर वंसते जानि, सुचिउ चरित मइ रचिउ पुगण ।। सावयलोय वसहि पुर माहि, दह लमण से धर्म कराह । दस रिस मानद दुर्तिया भेउ, झावहि चितह जिणेहरु देउ ।।