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( १५३ ) (१०३) श्वेत यस्त्र, उल्नल आभूषण तथा हाथों में करों से सुशोभित रुक्मिणी को देवी का रूप बनाकर श्राले (साफ) में बैठा दिया । वह चुपचाप ___ वहां बैठ गई और जाप जपने सगी ! श्रीकृष्ण बहानाले मो :
सत्यमामा और रुक्मिणी का मिलन (१०४) फिर सत्यभामा को जाकर भेजा और कहा मैं रुक्मिणी को वहीं बुलवा लूगा । तुम बाबड़ी के पास जाकर खड़ी रहो जिससे तुम्हें रुक्मिणी से भेद करा दूंगा।
(१०५) सत्यभामा बहुत सी सखी सहेलयों को साथ लेकर वाटिका में गयी जहां बावड़ी थी। तब अपनी आंखों से उसे देखकर सोचा कि क्या यह कोई वनदेवी बैठी है।
(१०६) दूध और चन्द्रमा के समान श्वेत कोई जल से ही निकलकर आई हो ऐसी उस देवी के उसने पैर छुए और बोली-हे स्वामिनी ! मुझ पर कृपा करो, जिससे मुझे श्रीकृष्ण मानने लगें।
(१०७) फिर वह देवी को मनाने लगी जिससे कि रुक्मिणी पति प्रेम से बंचित हो जावे । इस तरह अनेक प्रकार से वह अपनी बात प्रकट करने लगी, उसी समय हरि उसके सम्मुख आकर इंसने लगे।
(१०८) सत्यभामा तुम्हें क्या वाय लग गई है ? (तुम पागल हो गई हो क्या) बार बार क्यों पैर लग रही हो । इतनी अधिक भक्ति क्यों कर रही । हो? यह आले में (त.क, में रुक्मिणी ही तो बैठी है।
(१८६) सत्यभामा उसी समय कहने लगी मैंने इसके पैर छू लिये तो क्या हुआ । तुम बहुत कुचाल करते रहते हो, यह रुक्मिणी मेरी बहिन
ही तो है। 1. (११०) तुम तो रात दिन ऐसे ही कुचाल किया करते हो ठीक ही है ग्वालवंश का स्व-गप कैसे जा सकता है। फिर सत्यभामा ने रुक्मिणी से कहा...चलो बहिन घर चलें।
(१११) यान (रथ) में बैठ कर वे महल में चली गई । सब सुख भोगने लगे और पलास करने लगे । जय राजकाज करते कुछ दिन निकले गये तब दोनों रा.ियां गर्भवती हुई।