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रुक्मिणी के दूत का कुंडलपुर नगर को प्रस्थान
(६२३) वह दृत शीघ्र कुडलपुर गया गीर रूपचन्द से कहा कि हे स्वामी ! मेरी बात सुनिये मुझे श्रापके पास रुक्मिणी ने भेजा है।
(६२४) शंबुकुमार तथा प्रघम्न कुमार के पौरुष को सब कोई जानते । है। दोनों कुमारों को श्राप कन्याए दे दीजिये जिससे आपस में स्नेह बढ़े ।
(६२५) तब उस अवसर पर रुपचन्द ने कहा कि तुम क्मिणी को जाकर समझा दो कि जो यादव वंश में उत्पन्न होगा उसको कौन अपनी लड़की चेगा?
(६२६) उसने (मपर्चद) पुनः समझा कर बात कह दी कि तुम रुक्मिणी से जाकर इस प्रकार कहना कि संभल कर बात बोला करो, ऐसी बात बोलने से तुम्हारा हृदय क्यों नहीं दुखित हुआ।
(६२७) तूने हमारा सारा परिवार न करा दिया तथा तू शिशुपाल . को मरा कर चली गई । आज फिर तू यह वचन कहती है कि मदनकुमार ३ को बेटी दे दो।
(६२८) उसके वचनों को सुनकर दृत वहां से तत्काल चला और द्वारिका नगरी पहुँच गया । उमसे जो कुछ बात कही थी वह उसने जाकर रुक्मिणी से कह दी।
(३२६) नारायण से ऐसा कहना कि हम तुम्हारे मध्य कसे सुखी रह सकते है ? तुम्हारे कितने अवगुणों को कहे। तुमको छोड़ कर इम डूम को देना पसन्द करते हैं।
(६३०) यह वचन सुनकर वह व्यथित हो गयी और दोनों आंखों से आंसू बरसने लगे। इस तरह उसने मेरा मान भंग किया है और उसने मेरा हृदय दुखी कर बहुत बुरा किया है।
(६३१) रुक्मिणी को व्यथित बदन देखकर प्राम्न ने अपनी माता से कहा कि तू किसकी बोली से दुखी है यह मुझे शीघ्र कह दे ।
(६३२) हे पुत्र ! मैंने मंत्रणा करके दूत को कुंडलपुर भेजा था। वहां दृत से उसने जो दुष्प वचन कहे हैं, हे पुत्र ! उन्हीं से मेरा हृदय बिंध गया।