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( २१ । (६३३) मैंने तो यह जाना था कि वह मेरा भाई है किन्तु उसने नीच बनकर ऐसी बात कही है । वह मुझे विषय पासिनी मानता है। भला ऐसी बात कौन कहता है ?
(६३४) रुक्मिणी के वचन सुनकर प्रदान बड़ा कोधित हुआ कि उसने माता से नीच वचन कहे । अत्र रुपचन्द को रण में पछाड़ कर उसकी प्राणों से प्यारी पुत्री को छलकर परागा।
प्रद्युम्न का कुंडलपुर को प्रस्थान (६३५) उसी समय प्रद्य म्न ने विचार किया और बहुरुपिणी विद्या को स्मरण किया । शंबुकुमार और प्रदा म्न पवन वेग की तरह कुडलपुर गये।
दोनों का ड्रम का भेष धारण कर लेना
(६३३) नगरी के द्वार दिखलाई देने पर दोनों ने इम का रूप धारण कर लिया। मदन ने तो हाथ में अलावणि ले ली तथा शंबुकुमार ने मंजीरा ले लिया।
(६३७) फिर वे दोनों चीर चौराहे की ओर मुड़े तथा सिंहद्वार पर जाकर खड़े हो गये । वहां राजा अपने बहुत से परिवार के साथ दिखलाई दिया तब मदन ने अपनी माया फैलाई ।
(६३८) फिर मदन ने बहुत से गीत एवं कवित्त जो यादवों के सम्बन्ध के थे अत्तजित हो हो कर गाये | गीतों को सब ने ध्यान से सुना लेकिन श्रीकृष्ण की प्रशंसा के गीत उन्हें अच्छे नहीं लगे।
(६३६) जब उसने यादववंश का नाम लिया तो रूपचंद का मन दुखित हुआ । रूपचंद ने पूछा कि मैं तुम्हारे गीतों का सार जानता हूँ । पर तुम कहाँ से आये हो, यह बतलायो !
रुपचंद को अपना परिचय बतलाना (६४०) हमारे स्थान का नाम द्वारिका नगरी है और जहां यदुराज श्रीकृष्ण राज्य करते हैं । जिनके रुक्मिणी पटरानी है । हे राजन् ! जो तुम्हारी वाहन भी है।