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(१५८) रुक्मिणी के पास नारद का आगमन . .. (१४६) जिसका सिर मुडा हुआ है तथा चोटी उड़ रही है, हाथ में कमंडलु लिये राजर्षि नारद वहां आये जहां दुखित होकर रुक्मिणी बैठी हुई थी।
(१५५) जब नारद को आंखों से देखा तो व्याकुल रुक्मिणी उनसे कहने लगी हे स्वामी ! मेरे प्रश्च मन नामक पुत्र हुआ था पता नहीं उसे कौन हर ले गया ?
(१४८) हाथ जोड़कर सक्मिणी बोली कि हे स्वामी तुम्हारे प्रमाद से । तो मेरे ऐसा (पुत्र) हुआ था। किन्तु पेट का दाह देकर पुत्र चला गया उसकी तलाश कीजिये ।
(१४६) नारद ने तब हंसकर कहा कि प्रदान की सुधि लेने के लिये। मैं अभी चला | स्वर्ग, पाताल. पृथ्वी अथवा आकास में जहां भी होगा यहां ।। जाकर उसे ले आऊंगा ऐसा नारदजी ने कहा।
नारद का विदेह क्षेत्र के लिये प्रस्थान
(१५०) नारद ने समझा कर कहा कि शीघ ही पूर्व त्रिदेव, जाऊंगा जहां सीमंधर स्वामी प्रधान हैं और जिनको केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है।
(१५१) नारद ऋषि सीमंधर स्वामी के समरशरण में गये । वहाँ । चक्रवत्ति को बहुत आश्चर्य हुआ | नारद से वृत्तांत सुनकर चक्रवर्ति ने जिनेन्द्र भगवान से पूछा कि ऐसे मनुष्य कहां उत्पन्न होते हैं।
सीमंधर जिनेन्द्र द्वारा प्रद्युम्न का वृत्तान्त बतलाना
(१५२) तब जिनेन्द्र ने कहा कि जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में सोरठ (सौराष्ट्र) देश है । वहां जैन धर्म पूर्ण रूप से चल रहा है।
(१५३) जहां सागर के मध्य में द्वारिका नगरी है वह ऐसी लगती है मानों इन्द्रलोक से आकर गिर पड़ी हो । जहाँ नारायणराय (श्रीकृष्ण) निवास करते है ऐसे मनुष्य वहां पैदा होते हैं ।