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जिदत्त चउपई है जिसे रल्द कवि ने संवत् १३५४ में समाप्त किया था । ५५० से भी अधिक उपई एवं अन्य छन्दों में निबद्ध यह रचना भाषा साहित्य की दृषि से ही नहीं किन्तु काव्यत्व की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। अपभ्रंश से हिन्दी में शनैः शनैः शब्दों का किस तरह परिवर्तन हुआ, यह इस काव्य से अच्छी तरह जाना जा सकता है । यद्यपि कवि ने इस काव्य में अपभ्रंश शब्दों का भी पर्याप्त प्रयोग किया है किन्तु उनका जिस सुन्दरता से प्रयोग हुआ है उससे वे पूर्णतः हिन्दी भाषा के शब्द मालूम पड़ते हैं | वास्तव में १३ की और १४ वीं शताब्दी हिन्दी भाषा की साहित्यिक रचनायें प्रयोग करने के लिये महत्वपूर्ण समय था ।
पत्र मोतीलाल मेनारिया ने राजस्थानी भाग और साहित्य में संवत् १०४५ से १४६० तक की रचनाओं के सम्बन्ध में लिखा है- "इस युग के साहित्य सृर्जन में जैन मतावलंबियों का हाथ विशेष रहा हैं। कोई पचास के लगभग जैन साहित्यकारों के मन्थों का पता लगा है । परन्तु जैन विद्वानों का यह मधुर साहित्य जितना भाषा की दृष्टि से महत्वपूर्ण है उतना साहित्य की दृष्टि से नहीं है यद्यपि साहित्यिक सौन्दर्य भी इसमें यत्र-तत्र दृष्टिगोचर होता है ।
मेनारियाजी की निम्न सूची से स्पष्ट है कि हिन्दी की नींव ११ वीं शताब्दी में रख दी गई थी और उसको जैन विद्वानों ने मजबूत बनाया था ।
२. कुछ महत्वपूर्ण नाम ये हैं- वनपाल (सं० १०८१), जिनवल्लभसूरि (सं० १९६७) (१९७०), धादिदेवसूरि (सं० १९८४), वज्रसेनसूर (सं० १२२५), शालिभद्रसूरि (सं० १२४१), नेमिचन्द्र भण्डारी (सं० १२०६ ) आस (सं० १२५७), धर्म (सं० १२६६), शाह स्वण और भत्तउ (सं० १२७८), विजयसेन सूर (सं० १२८८), राम (सं० १२८), सुमतिगण ( १२६०), जिनेश्वरसूरि (१२७८१३३१), श्रमति (सं० १२००), लक्ष्मीतिलक (स० १३११-१७), सोममूर्ति (सं० १२६० - १३३१), जिनपर (० १३०६ - २२), विनयचन्द्रसूरि (१३२५-५३), अगड़ (सं० १३३१), संग्रामसिंह ( नं० १३३६), पद्म ( नं० १३५८), जयशेखरसूरि ( ० १३६०-६२), प्रज्ञातिलकसूरि (सं० १३६३), वस्तिभ (सं० १३६८), गुणाकरसूरि (सं० ५३७९), 'बदेवरि (१६७१), फेरु (१३७६) धर्मकलश ( नं० १३७७), सारमूर्ति (१२६.०), जिनप्रभसूरि (१३६०-६०), सोलख (१४वीं शताब्दी), राजशेरवर भूरि (= १४०५), जयानंदसूरि (सं०] १४१० ), तरगाश्रमसूरि ( १४१५ ), विनयन (१४१२), जिनोदयसूरि (१४१५ ), ज्ञानकलश (१४१५ ), . (सं० १४२६, जिनरल सूरि ( ० १४५०), मेरुनन्दन (सं० १४३२), देवसुन्दरसूरि (सं० १४४०), साधुस ( सं १४४५ ) |
पृथ्वीचन्द