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( ५४६ ) नारद से रुक्मिणी का साक्षात्कार
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(४२) वह अत्यन्त रूपवती तथा अनेक लक्षणों से युक्त थी। चन्द्रमा के समान मुख वाली वह ऐसी लगती थी मानों चन्द्रमा ही उदय हो रहा हो । इंस के समान चाल भी जम दूसरों के मन को लभाने वाली थी । उसके समान कोई दूसरी स्त्री नहीं थी।
(४३) जब नारद को प्राता हुआ देखा तो सुरसुदरी ने उन्हें 1 नमस्कार किया । रुचिमणी को देखकर वे बोले कि नारायण की पट्टरानी बनो।
(४४) भीष्म की बहिन सुरसुन्दरी ने कहा कि रुक्मिणी शिशुपाल को दे दी गयी है. इस मुन्दर नगरी में बहुत उत्सव हो रहे हैं, लग्न रख दी गयी है और वित्राइ निश्चित हो चुका है।
(४५) सुरसुन्दरी ने सत्यमान से कहा कि अब आपके लिये ऐसा कहने का कोई असर नहीं है । जो शत्र-राजाओं के मान को भंग करने के लिये काल के समान है ऐसा शिशुपाल सब कुटुम्बियों के साथ आ पहुँचा है।
(४६) उसके बचनों को सुनकर नारद ऋषि कहने लगे कि तीन खरड का जो चक्रवत्ति है तथा छप्पन करोड यादवों का जो स्वामी है ऐसे को छोड़कर दूसरे के साथ विवाह करोगी ?
(५७) पूर्व लिखे हुए को कोई नहीं मेट सकता जिसके साथ लिखा होगा उसी के साथ विवाह होगा । अपनी बात को छोड दो, नारायण ही । रुक्मिणी को न्याहेगा।
(४) तब सुरसुन्दरी मन में प्रसन्न हुई कि मुनि ने जो बात कही थी , पही मिल रही है। नारदजी ! सुनो और सत्यभाव से कहो । यह युक्ति बताओ जिससे विवाह हो जाय ।
(E) नारद ऋपि ने कहा कि तुम ऐसा करना कि पूजा के निमित्त । मंदिर में चले जाना । नंदनधन को संकेत-स्थल बनाना, वहीं पर मैं तुमसे (श्रीकृष्ण) को लाकर सेंद कराऊंगा |
(५०) तब देवांगना सतश सचिमणी ने कहा कि कृष्ण मुरारी को कौन पहिचानेगा तब सुविज्ञ नारद ऋषि ने कहा कि मैं तुम्हें चिन्ह बतलाता हूँ।