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नमस्कारु तव रूपिणि करइ, धरम विरधि खूडा उचरइ । करि पादरु सो विनउ करेइ, करणय सिंघासणु बैसगा देहु १३६६।। समाधान पूछइ समुझाइ, वह भूख उ भूउ चिललाइ । सखी वूलाइ जणाइ सार, जैवरण करहु म लावहु बार ॥४००।। जीवण करण उठी तंखिणी, मुइरी मयण अनि थंभीरणी । नाजु न चुरइ चूल्हि (धाइ, वह भूख उ भूवउ चिललाइ ।।४०१॥ हो सतिभाम के घरि गयउ, कूर न पायो भूबउ भयेउ ।
जो दीयो सो लीयो छोनि, तिनस्यो पूरी लाघरण तीन ॥४०२॥ | रूपरिण चितह उपनी कारिंग, तउ लाडू ति परोसे आणि ।
मास दिवस को लाडु धरे, खूडे रूप सवइ संघरे ॥४०३।। अाधु लाडू नारायण खाइ, दिवस पंच ज्यो रहइ आघाइ । तब रूपिणि मन विभी कहइ, किछु किछु जारगउ यहु अहइ ।।४०४।।
(३६९) ३६८ के पश्चात् एक छन्द ग प्रति में और है जो निम्न प्रकार हैतापस देखि उपना भाउ, तब रुपणी प्रधई सतभाउ । स्वामी प्रागमणु किहां थी भया, एता ब्रह्मचरजु कहाँ ते निया ।। १. खेड (क) डउ (ख)
(४७१) १. पाक करण उठीत खिरणी, (क) २. सुमरो विद्या (ग) ३. अगनि (क) अगि (ख) अग्नि बंधरणी (ग) ४. माण न चढाइ भूमि धूजाइ (को नाज न राहि । धूहि घुधाइ ख) अग्नि बलइ चूल्हइ "धू धाइ (ग) ५. विललाइ (क ग)
(४०२) तबहिं मयरण उठि मा पहि गया (ग) २. रहिउ (क) भयउ (ख) ३. सतिभामा सो (ग)
(४०३) १. विस (क) चिहि (ग) २. खगु लडू पल्सर (ग) पसे (क) ३. नाराइणु कर लाडू घरे (ग) ४. लोई वंभण सब संघरे (म) मूलप्रति में 'वीर' पाठ है।
(४०४) १. विभा (ख) चितिहि विसमाइ (ग)