________________
प्रद्युम्न का सिंह रूप धारण करना रालि पाउ भुइ उभउ रहइ, तहि क्षण सिंह रुप बहु भयउ । तहि हलु प्राबधु लयो सम्हालि, फुणि ते दोउ भीरे पचारि ।४५०। जूझ भिरइ अखारउ करइ, दोउ सयल मलावझ लरइ ।। सिंघ रुपि उठियोउ संभालि, गहि गोडउ घालियउ अखालि ।४५१ छपनकोटि नारायण जहा, पडियो जाइ ति हलहर तहा । देखि अचंभ्यो सगलो लोगु, भणइ कान्ह यह वडउ विजोगु ।४५२॥
चतुर्थ सर्ग रुक्मिणि के पूछने पर प्रद्य म्न द्वारा
__ अपने बचपन का वर्णन इहर बात तो इहइ रही, वाहुरि कथा रुपिणी पह गइ । पूछिउ तव नंदन आपनौ, कापह सीख्यउ बल पोरिष घणौ ॥४५३॥ ॥ मेघकूट जो पाठई ठाउ, जमसंबर तहा निमस राउ । निसुणौ वयरण माइ रुपिणी, तिहि ठा विद्या पाइ घरणी ॥४५४॥
(४५०) १. राडि पाउ भौमि कभी सोइ (ग) २. तंतिगि (ग) ३. विक्रम सो होइ (ग) ४. उठि अलिभव घालिज संभारि (क) उहि हलु आवधु लियो संभालि (स) हलु प्रापधु लिया संभालि (ग) मूलप्रति में-'तहि लुम्पावधु' पाठ है
(४५१) १. मल्लबहू (क) २. लुझिवद (क) लडहिं (ख) ३. प्रालि (क) । . नोट---- प्रति में यह छन्द नहीं है । ख प्रति में तीसरा चौया वरण नहीं है।
(४५२) १. पजिउ (क ख) पड्या (ग)
(४५३) १. अइसी (ग) हरनहर दात उही इह रही (ख) २. नापहि फरण परिषु घणा (ग)
(४५४) १. पटुइ (क) पाया (ग) पावइ (ख) र. मुटु चात माता कमिरिण (ग) ३. यह (क) का (ख) इ (ग)