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( १०७) मायामय सन खर हडइ, उरई छत्र महिमंडल परहि ! चउरंग दलु चलिउ पडाइ, हय गय रह को सकइ सहारि ॥५३२।। तवइ पजून कोपु मन कियउ, परवत वारण हाथ करि लयउ । मेलोउ वाण धनसु कर लयउ, रूधि पवणु आडहु हुइ रबउ ॥५३३।। कोप्यो द्वारिका तणो नरेसु, मयणहि पवरिसु देखि असेसु । वन प्रहार करइ खरण सोइ, पञ्चर फूति खंड मो होड़ ॥५३४।। देवतु वाणु मयण लाउ हाथ, नारायण पठउ जम पाथि । तव केसव मन विसमइ होइ, याको चरितु न जाणइ कोइ ॥५३५।। प्रयसउ जुझु महाहउ होइ, एकइ एकु न जीतइ कोइ । दोउ सुहड खरे बलिवंत, जिन्हि पहार फाटहि वरम्हंड ॥५३६॥
- श्रीकृष्ण द्वारा मन में प्रद्युम्न की वीरता के बारे में सोचना तवइ कोपि जादौ मनि कहइ, मेरी हाक कवरण रण सहइ । मोस्यो खेत रहै को ठाइ, इहि कुल देवी पाहि सहाइ ||५३७॥
(५३२) १. माया सपि पचन संघरत (ग) २. अरु (1) ३. पलाइ (ग) ४. गयवर के सकल रहाइ (ग)
(५३३) १. मणि (ग) २. हस्त (ग) ३. प्रागड (ग) (५३४) १. फुणि (ग) २. पर्वत (ग) ३. कुछ (ग) (५३५) १. देव विभाग (ग)
(५३६) १. महो महि (ग) २. धौर (ग) बलिषडं (ग) ३. जिम्ह चानस्या गोपहि ब्रह्म' (ग)
{५३७) नोट-चौथा चरण ग मति में नहीं है ।