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( ११८) माणिउ बोल कुटसु बहु मिलिउ, खगवइराउ मसाहरण चलिउ । द्वारिका नवरी पहते जाइ, जिहि ठा मंडपु धरचो छवाइ ॥५६॥ तोरण रोपे घर घर वार, कनक कलस थापे सीहद्वार । " सयल कुटव मिलि कीयो उपाउ, भानकुबर को भयउ वियाहु ।। ३.६ ॥ पथंतरि ते राजु कराहि, विविहि पयाल भोग विलसाई । राज भोग सब मिलइ मया. तहि सम पुहागिन दीसइ कवगु १५६२।।
पंचम सर्ग विदेह क्षेत्र में क्षमंधर मुनि को केवल ज्ञान की उत्पत्ति ... एतइ अबरु कथंतर भय उ, पृथ्व विदेह जाइ संभयऊ । पूंडरीकरणी एयरु हइ जहा, खेमंधरु मुनि निमसइ जहा ॥५६३।। नेम धर्म संजमु जु पहागु, तहि कहु उपगाउ केवलज्ञान । आइत स्वर्ग पसइ जो देव, प्रायो करण - मुनिसर सेब ॥५६४!!
अच्युत स्वर्ग के देव द्वारा अपने भवान्तर की बात पूछना ... नमस्कार कीयउ तखीणी, पूजी बात भवंतर तरणी । पूर्व सहोबरु मुरिण गुणवंतु, सो स्वामी कहिठार उपत १५६५॥
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(५१०) १. सुपरिवरू मिल्यो (ग) २. मुसाहरण (ख) विवाहण (ग) ३. तोरण धरे रचाई (ग) तृतीय एवं चतुर्थ चरण (ख) प्रति में नहीं है।
(५६१) १. कामिशि गात्राहि मंगलबारू (ग) २. उछाउ (ग) ३. हुना (ग) | (५६२) साप्रति में यह चौपाई नहीं है । ग प्रति में निम्न त्रौपाई है।
से प्रवल राज्जु कराहि, हउसनाक सयहि मनमाहि।
राजु भोगु सहि वित्तसहि प्रागु, नाही फोइ तिन्ह सनमानु ॥६० (५६३) १. पूरक देसि जाप सो गया (ग) २. खेमधरू (ग)
(५६४) १. तप किया समान (ग) २. उपनहि (ख) ३. अच्युत स्वर्ग वसह सो देय (1) मूलमति में 'पसई' पार है ।
(५६५) १. नेमसिर को जोति जाग (ग) ५. गोहि (ग) मुगहि (स) सो सामी कहि ठाइ उपनु (ख) सो सम्पकवर पाहि पाहूत (ग) : :
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