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(१३) समुद्र के मध्य में द्वारिका नगरी है मानों कुबेर ने ही उसे बनाकर रखी हो। जिसका बारह योजन का विस्तार है और जिसके दरवाजों पर स्वर्ग- कलश दिखाई पड़ते हैं ।
(१७) चौबारों के विविध प्रकार के स्फटिक मणि के छज्जे चन्द्रमा की कान्ति के समान दिखाई देते हैं। बांके किवाड़ मानों मरका मशियों से अड़े हुये है तथा मोतियों की बंदनवार सुशोभित हो रही है।
( १ = ) जहां एक सौ उद्यान एवं स्वच्छ निवास स्थान है जिसके चारों ओर मठ, मन्दिर और देवालय हैं। जहां चौरासी बाजार (चौपट हैं जो अनेक प्रकार से सुन्दर दिखाई देते हैं ।
(१६) जिसके चारों दिशा में खूब गहरा समुद्र हैं जिसका जल चारों ओर कोला मारता है। जहां करोड़पति व्यापारी निवास करते हैं ऐसी वह द्वारिका नगरी है ।
(२०) धर्म और नियम के मार्ग को जानने वाली जिसमें १८ प्रकार की जातियां रहती हैं, जिसमें ब्राहाण, क्षत्रिय, एवं वैश्य दीनों वर्णों के लोग रहते हैं, जहां शूद्र भी रहते हैं तथा जहां छत्तीसों कुल के लोग सुख पूर्वक निवास करते हैं उस नगरी का स्वामी (राजा) यादवराज है ।
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(२१) जिसके दल बल और साधनों की कोई गणना नहीं है । जब वह गर्जना करता है तो पृथ्वी कांपने लगती है । वह तीन खण्ड का चक्रवर्ती राजा शत्रुओं के दल को पूर्ण रूप से नष्ट करने वाला है।
(२२) और उनका बलभद्र सगा भाई है । उनके समान पुरुषार्थी विरले ही दीख पड़ते हैं। ऐसे छप्पन करोड़ यादवों के साथ जो किसी से रोके नहीं जा सकते थे वे एक परिवार की तरह राज्य करते थे ।
(२३) एक दिन श्रीकृष्ण पूरी सभा के साथ बैठे हुये थे चतुरंगिणी सेना के कारण जहां खाली स्थान नहीं सूझ रहा था। अगर यदि सुगन्धित पदार्थों की गंध जहां चारों ओर फैल रही थी। सोने के दण्ड वाले चामर (संबर) शिर पर इल रहे थे ।
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(२४) जहां पांच प्रकार के ( सितार, ताल, भांक, नगाड़ा तथा तुरही) खूब बज रहे थे । अनेक प्रकार की सुंदर पायल पहने हुये भाव भरती हुई नृत्य करने वाली ताच, विनोद एवं कला का अनुसरण करती ई घर रही थी ।