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इन दोनों रसों के अतिरिक्त शृंगार, करुण, रौद्र आदि रसों का प्रयोग भी इसमें हुभा है । वात्सल्य रस भी जिस कई लोग नत्र रमों के अतिरिक्त रस मानते हैं इस काव्य में प्रयुक्त हुआ है। वात्सल्य रस का एक नमूना देखिए
जब रूपिरिण दिठा परदवणु । सिर चुमइ पाक उ लीयउ, विहसि वयणु फुरिण कंठ लायउ । अब मो हियउ सफलु, सुदिन आज जिहि पुत्रु आयउ । दस मासई जइउ धरिउ, सहोए दुख महंत । वाला तुगह न दिठ मइ, यह पछित्तावउ नित ॥४२६॥
चौपई
माता तणे वयणु नितुणे इ, पंच दिवस कउ वालउ होइ ।। खरण इकुमाह विरधि सोकयउ, फुरिग सो मयरण भय उ वेदहउ॥४३०॥ खरण लोटइ खरण आलि कराइ, खण खण अंचल लागइ धाई। खग खण जेत्वणु मागइ सोइ, बहुवु मोह उपजावइ सोइ ।।४३१॥
इसी प्रकार वीभत्स रस का भी कवि ने बड़ा सुन्दर वर्णन किया है। श्री कृष्ण और प्रद्युम्न में खूब जम कर लडाई हुई । युद्ध में अनेकों योद्धा काम आये । चारों ओर नरमुड ही नरमुंड दिखाई देने लगे।
कवि कहता है:हय गय रहिवर पड़े अनंत, ठाई ठाई मयगल मयमंतु । ठाठा रुहिरु वहहि असराल, ठाइ ठाइ किलकइ वेताल ॥५०४।। गोधीरणी स्याउ करइ पुकार, जनु जमराय जणावहि सार । वेगि चलहु सापडी रसोइ, ग्रसइ प्राइ जिम तिपत होई ॥५०६।।
प्रद्य म्न के छटी रात्रि में अपहरण हो जाने के कारण, रुक्मिणी की दशा अत्यन्त शोचनीय हो गयी । उसका परिवेदन और आक्रन्दन वास्तव में हर एक के लिए हृदय द्रावक था । वह पुत्र वियोग के कारण ऐसी संतप्त