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ससवपणासमो संधि [७] यह सुनकर रावण को भर उटा ! वहाण, डो सैकड़ों इन्द्रों को मार सकता था, चन्द्रकी तरह अपनी चमचमाती चन्द्रहास तलवार हाथ में लेकर उसने कहा, "मैं तुम्हारा सिर अभी धरती पर गिराता हूँ | तू मेरी निन्दा कर रहा है और शत्रकी प्रशंसा ।' तब विभीषण भी आवेशमें आ गया। वह विभीषण, जो ऋद्ध होनेपर, लोगों में निडर घूमता था उसने मणि और रत्नोंसे अलंकृत खम्भा उठा लिया, जो रावणके यशकी तरह शोभित था । जब वे इस प्रकार एक दूसरे पर दौड़े तो लोगों में कानाफूसी होने लगी कि देखें जयश्री दोनों में से किसे अपनाती है। बलपूर्वक एक दूसरेको पकड़नेके प्रयासमें, पेड़ और तलवार लिये हुए वे ऐसे लग रहे थे मानो अपनी सूंड़ उठा कर ऐरावत हाथी एक दूसरे पर टूट पड़े हों ॥१-७॥
[८] इतने में मन्त्रियोंने ताना कसते हुए उन दोनोंको रोक लिया और कहा, "आदरणीयो, आप लोग आपस में एक-दूसरेके प्राण न लें, वे प्राण जो अनेकों और स्वयं आपके जीवनका सार हैं।" यह सुनकर भी अमर्षसे क्रुद्ध रावण नहीं माना । उसकी पताका धरती पर समुद्र पर्यन्त फहरा रही थी। उसने विभीषणको लक्ष्य करके कहा, "अरे दुष्ट क्षुद्र चुगलखोर जा मर, मेरी कलंकहीन लंकासे निकल जा।" विभीषण इस पर कहता है, "यदि अब भो मैं यहीं रहता हूँ तो अभिराम रामका विद्रोही बनता हूँ। रावण, तुम मूर्ख एवं विवेकशून्य हो, जिस तरह सम्भव हो अपने आपको बचाना।" विभीषण वहाँ से अपने भवनमें उसी प्रकार चला गया, जिस प्रकार महागज कदली वनमें प्रवेश करता है। इधर लक्ष्मणकी, इर्षसे भरी हुई तीस हजार अक्षौहिणी सेना आकाशको रौंधती हुई कूच