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सप्तवण्णासमो संधि समान ज्वालमालासे प्रचलित, हर और शनिकी भाँति क्रुद्ध होकर भी कान्तिमय । सिंहकी भाँति उसके कन्धे उठे हुए थे
और पावसकी धरती की तरह, जो रोमाच ( अंकुर ) धारण किये था । उसने कहा -"तुमने जो कुछ भी कहा, वह रायणके लिए किसी भी तरह प्रिय नहीं हो सकता। तुम कौन हो ? किसने तुमसे यह सब कहलवाया ? लक्ष्मण कौन है ? और राम कौन है ? यदि सीता देवी उसे सौंप दी गयी, तो मैं अपना इन्द्रजीत नाम छोड़ दूंगा ? ॥१-७॥ .. [६] यह सुनकर विभीषणने कहा, "यह बहुत बुरी बात है, जो तुमने सीता देवीके बारेमें बुरा-भला कहा । यदि युद्ध हुआ तो मुझे हांका है कि दु. में शादी शक्ति नहीं कि तुम उसका सामना कर सको। वह युद्ध, जो खिले हुए कमलोकी भाँति चमक रहा है, जिसमें दुर्द्धर नरेशोंका घमण्ड चूर-चूर हो चुका है, जिसमें दुर्दमदानव मौतके घाट उतर रहे हैं, जो आगे बढ़ते हुए रामके हथियारोंसे आक्रान्त हैं। अनुरूप बाण और फरसों से लैस इन्द्रका भी अहं, जो चूर-चूर कर देते हैं। रामने जब शम्बूकको यमके मुख में डाल दिया था, तब तुम सबने मिलकर भी उनका क्या कर लिया था ? जिन्होंने जीते जी खरका सिर काट डाला, तब चौदह हजार होकर भी तुमने उनका क्या कर लिया था: अनेक युद्धोंका विजेता लक्ष्मण, जबतक रामका सारथि है, तबतक यह अजेय है। उसे कौन युद्धमें जीत सकता है ? इसके अतिरिक्त, हनुमानने जब तुम्हारे नन्दनं वनमें प्रवेश किया था, तब तुमने उसका क्या कर लिया? उसने अपने निशान उस उपवनमें वैसे ही छोड़ दिये थे जैसे कोई विदग्ध, कर्णाटक बालाके यौवन में अपने चिल्ल अंकित कर देता है ।।१-९॥