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है जाकर क्रॉस पर ध्यान करने की! यदि ऐसा तुम्हें आकर्षित करता है तो यह अच्छा है लेकिन यह कोई आवश्यक नहीं है। क्रॉस में ही कोई खास गण नहीं है।
वस्तुत: जहां भी ध्यान घटता है वहां विशिष्ट गुणवत्ता होती है। ध्यान ले आता है उस विशिष्ट गुणवत्ता को। यह गुणवत्ता नहीं होती है विषय-वस्तुओं में, यह होती है तुममें ही। जब तुम किसी चीज पर ध्यान करते हो, तुम उसे दे देते हो अपनी अंतस सत्ता। अकस्मात वह हो जाती है पावन, पवित्र। चीजें पावन नहीं होती, ध्यान उन्हें बना देता है पावन। तुम किसी चट्टान पर ध्यान कर सकते हो और सहसा वह चट्टान हो जाती है मंदिर। कोई बुद्ध इतना सौंदर्यपूर्ण नहीं होता जितनी कि वह चट्टान जबकि तुम उस पर ध्यान करते हो। ध्यान है क्या? यह है चट्टान को बौछारों से सराबोर करना तुम्हारी चेतना दवारा। यह है चट्टान के चारों ओर गतिमान होना, इतना निमग्न होना, इतनी गहनता से संपर्कित होना कि एक सेतु वहां आ जुड़ता है तुम्हारे और चट्टान के बीच। अंतराल तिरोहित हो जाता है-तुम जुड़ जाते हो चट्टान के साथ। वास्तव में अभी तो तुम जानते ही नहीं कौन द्रष्टा है और कौन दृश्य। द्रष्टा ही बन जाता है दृश्य, दृश्य ही बन जाता है द्रष्टा। अब तुम नहीं जानते चट्टान क्या है, कौन है और ध्यानी कौन है। अचानक ऊर्जाएं मिलती हैं और सम्मिलित हो जाती हैं और वहां होता है मंदिर। अनावश्यक ही विक्षेपों को निर्मित मत करो, क्योंकि तब तुम बन जाते हो दुखी।
कोई यहां था और बहुत वर्षों से वह एक निश्चित प्रकार का मंत्र दोहराता था। वह बोला, 'ध्यान बारबार भंग होता है। ' मैंने पूछा, 'विक्षेप किस बात से है?' उसकी पत्नी की मृत्यु हो चुकी थी और वह उसे बहुत प्रेम करता था। मैं जानता था उस स्त्री को, वह सचमुच ही सुंदर व्यक्तित्व वाली थी। उसने फिर विवाह नहीं किया। वह वास्तव में ही प्रेम करता था उससे। किसी दूसरी स्त्री ने फिर उसे आकर्षित न किया। अब वह मर चुकी थी और रिक्तता आ बनी थी और वह अनुभव करता था अकेलापन। इसी अकेलेपन के कारण ही वह गया किसी शिक्षक के पास, यह जानने को कि कैसे छुटकारा पाये अपनी पत्नी की याद से, उसने दे दिया उसे कोई मंत्र। अब वह जप कर रहा है उस मंत्र का कम से कम तीन वर्षों से और बार-बार जब वह जप कर रहा होता है मंत्र का, एक रोबोट की भांति, तो पत्नी आ पहुंचती है, वह चेहरा सामने चला आता है। वह नहीं भूल पाया पत्नी को। वह मंत्र पर्याप्त शक्तिशाली सिद्ध नहीं हुआ। तो वह था यहां और था बहुत दुखी। वह कहता था, तीन साल गुजर गए हैं और मैं सदा आविष्ट रहता हूं उसकी स्मृति से। ऐसा जान पड़ता है कि मैं इससे बाहर नहीं आ सकता। इस मंत्र ने भी कोई मदद नहीं की। और तीन सालों से सचमुच मैं धार्मिकता से करता रहा हूं इसे। ' मैंने कहा, 'तुम मूढ़ हो। इस मंत्र का जप करने की कोई जरूरत नहीं। तुम्हारी पत्नी का नाम दोहराओ; उसे ही बना लो मंत्र। उसकी तस्वीर रख लो अपने सामने और देखो उस तस्वीर को। उसे परमात्मा की प्रतिच्छवि बना लो। 'वह कहने लगा, 'क्या कह रहे हैं आप? वही तो मेरे चित्त का विक्षेप है। ' तो मैंने कहा उससे, 'ध्यानभंग करने वाले को अपना ध्यान बना लो। क्यों खड़ा करना संघर्ष?'