Book Title: Padmapuran Part 2
Author(s): Dravishenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 10
________________ पद्मपुराण चौंतीसवाँ पर्व राम वनमें विराजमान हैं और लक्ष्मण पानी लेने के लिए एक सरोवरके किनारे जाते हैं। वहाँ हाथी पर चढ़ा एक युवराज अपने सेवकों के द्वारा लक्ष्मण को बुलाकर उसके प्रति प्रेम प्रकट करता है । लक्ष्मणके यह कहने पर कि प्रथम मुझे अपने भाई के पास भोजन सामग्री भेजना है । यह सुन उस युवराजने अपने पास उत्तमोत्तम भोजन सामग्री बुलाकर प्रधान द्वारपाल द्वारा राम और सीताको अपने मण्डपमें बुलाया। लक्ष्मण वहाँ विद्यमान था ही सीता और राम भी वहाँ पहुँच गये। सबका आतिथ्य सत्कार करने के बाद युवराजने अपना असली रूप प्रकट किया। वह कन्या होने पर भी अबतक कुमारके बेषमें रह रहा था। पूछने पर उसने इसकी आद्यन्तकथा कह सुनाई । मेरा पिता बालिखिल्य मेरे जन्म के पूर्वसे ही म्लेच्छ राजाके यहाँ कैद हैं। उनके अभावमें मैं कुमारका वेष रख राज्यका पालन कर रही हूँ मेरा नाम कल्याणमाला है। राम-लक्ष्मण सीताने उसे सान्त्वना दी। तदनन्तर अागे चलकर उन्होंने म्लेच्छ-राजाको आज्ञाकारी बनाकर बालिखिल्यको बन्धन मुक्त कराया। १२५-१३२ पैंतीसवा पर्व वन विहार करते-करते सीता थक जाती है । प्याससे उसका मुब सूख जाता है। जिस किसी तरह सान्त्वना देकर राम-लक्ष्मण उसे समीपवर्ती गाँव में ले जाते हैं और सब क्रमप्राप्त कपिल ब्राह्मणकी यशशालामें ठहर जाते हैं। वाहाणीके द्वारा दिया ठण्डा पानी पीकर सीताका हृदय शान्त हो जाता है परन्तु उसी समय लकड़ियोंका भार शिर पर रखे हुए कपिल ब्राहाण आता है और इन्हें अपनी यज्ञशालामें ठहरा देख ब्राहाणीके प्रति रोषसे उचल उठता है। वह सबका तिरस्कार कर उन्हें घर से निकलने के लिए बाध्य करता है। उत्तेजित लक्ष्मण को शान्त कर राम और सीता वनमें एक वट वृक्ष के नीचे पहुँच कर विश्राम करते हैं। आकाशमें घनघटा उमड़ अाती है । जोरदार वर्षा होने लगती है तथा राम-लक्ष्मण सीता असहायकी तरह पानीसे भींगने लगते हैं। यक्षपति अपने अवधिज्ञानसे उन्हें बलभद्र और नारायण जानकर नगरीकी रचना करता है और उसमें सत्रको ठहराता है। अचानक कपिल ब्राह्मण उस नगरीके पास जाकर जैन धर्म धारण करता है और रामकी दान-बीरतासे प्रलुब्ध चित्त हो ब्राहाणी के साथ उनके दरबार में जाता है । वहाँ लक्ष्मणको देख भयसे भागनेका प्रयत्न करता है पर सान्त्वना मिलने पर धीरजसे बैठकर रामका स्तवन करना है। राम उसे अपरिमित धनधान्य-सम्पदासे परिपूर्ण करते हैं। अपकारके बदले उपकारका अनुभव कर ब्राह्मण लज्जासे नतमस्तक हो गया। अन्त में ब्राह्मणने गृहस्थीका भार स्त्रीके लिए सौंप जिन-दीक्षा धारण कर ली। १३३-१४६ छत्तीसवाँ पर्व वर्षाकाल बीतने पर जब राम उस यक्ष निर्मित रामपुरीसे चलने लगे तब यक्षराजने उनसे क्षमा माँगी । महावनको पारकर राम, वैजयन्तपुरके समीपवर्ती मैदान में पहुँचे । रात्रि के समय एक वृक्ष के नीचे ठहर गये। वैजयन्तपुरके राजा पृथिवीधर और रानी इन्द्राणीकी वनमाला नामक पुत्री प्रारम्भसे लक्ष्मणको चाहती थी पर उनके वन भ्रमणका समाचार सुन राजा पृथिवीधर उसका अन्य कुमारके साथ विवाह करने के लिए उद्यत दुया। यह देख, वनमाला आत्मघातकी भावना लेकर रात्रिके समय अपनी सखियों के साथ बनदेवी की पूजाका बहाना कर वनमें गई और साथके सब लोगों के सो जाने पर वह उत्तरीय वनकी फाँसो बना मानेके लिए तैयार हुई। लक्ष्मणने छिपे छिपे उसके पास पहुँच कर उसकी प्राण-रक्षा की । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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