Book Title: Padmapuran Part 2
Author(s): Dravishenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 9
________________ विषयानुक्रमणिका करते हैं। राम दृढ़ताके साथ कहते हैं कि श्राप भरतको राज्य देकर अपने सत्यवचनको रक्षा कीजिये मेरी चिन्ता छोड़िये। इसी बीच भरत संसारसे विरक्त हो दीक्षाके लिए महलसे नीचे उतरता है तब राजा दशरथ और राम उसे जिस किसी तरह समझा बुझाकर रोकते है। भरतका राज्याभिषेक होता है। ७३-७८ पिताके पाससे उठकर राम अपनी माता अपराजिता ( कौशल्या ) के पास जाते हैं और उसे समझाकर तथा सान्त्वना देकर वनको जाने के लिए उद्यत होते हैं। सीता और लक्ष्मण उनके साथ हो जाते हैं। राम लक्ष्मण के साथ प्रजाके अनेक लोग थे । सूर्यास्तका समय आया और राम लक्ष्मण तथा सीता तीनों ही नगर के बाहर श्री जिनमन्दिरमें ठहर गये । दशरथकी अन्य रानियोंने उनके पास जाकर प्रार्थना की कि आप राम लक्ष्मणको लौटाकर शोकसागरमें डूबते हुए इस कुलकी रक्षा करो परन्तु दशरथके विरक्त हृदयने अब इस प्रपञ्चमें पड़ना उचित नहीं समझा। ७६-८५ बत्तीसवाँ पर्व राम लक्ष्मण, सीताको साथ ले मध्यरात्रिके समय जब कि सब लोग बाह्यमण्डपमें सो रहे थे मन्दिरके पश्चिम द्वारसे निकलकर दक्षिण दिशाकी अोर चल पड़े। प्रातः जागनेपर कितने ही लोग उनके पीछे दौड़े तथा कुछ दूर तक साथ गये। अन्तमें परियात्रा नामक वनके बीचमें पड़नेवाली भयंकर नदीको राम लक्ष्मण तैरकर पार कर गये परन्तु सामन्त एवं अन्य प्रजाजन उसे पार नहीं कर सके । फलस्वरूप कितने ही घर लौट गये और कितने ही दीक्षित हो गये। तदनन्तर राजा दशरथने सर्वभूतहित मुनिराज के पास दीक्षा धारण कर ली। कौशल्या और सुमित्रा पति एवं पुत्रके विना बहुत दुःखी हुई। भरतकी माता केकया इन दोनोंकी दुःखपूर्ण अवस्था देख भरतसे कहती है कि तू राम लक्ष्मणको लौटाने के लिए जा। मैं भी पीछेसे ग्राती हूँ। तदनन्तर सघन वनमें एक सरोवरके तीरपर भरतने राम लक्ष्मणको देखा। सबका मिलाप हुअा। केकया और भरतने वापिस चलनेका बहुत श्राग्रह किया परन्तु सब व्यर्थ सिद्ध हुआ । राम वापिस नहीं लौटे। भरत निराश हो वापिस लौट श्राया और राज्यका पालन करने लगा। उसने द्युतिभट्टारकके समक्ष प्रतिज्ञा ली कि मैं राम के दर्शनमात्रसे मुनिदीक्षा ले लूंगा। द्युतिभट्टारकने सबको धर्मका यथार्थ उपदेश दिया । ८६-१०० तैंतीसवाँ पर्व क्रम-क्रमसे राम लक्ष्मण चित्रकूट वनको पारकर अवन्ति देशमें पहुंचे। वहाँ एक ऊजड़ देशको देख तत्रागत दीनहीन मनुष्यसे उसका कारण पूछा। उसने इसी प्रकरणमें दशाङ्गपुरके राजा वज्रकर्णका वृत्तान्त सुनाया । तदनन्तर सिंहोदरकी उद्दण्डताका वर्णन सुनाया। सिंहोदर और वज्रकर्णके पारस्परिक संघर्षका निरूपण किया और यह बताया कि सिंहोंदरने कुपित होकर इस हरे-भरे देशको ऊजड़ किया है। १०१-११३ राम लक्ष्मण आहार प्राप्त करनेकी इच्छासे आगे बढ़ते हैं। लक्ष्मणके सौन्दर्यसे आकृष्ट हो राजा वज्रकर्ण उसे उत्तमोत्तम भोज्यपदार्थ देता है। लक्ष्मण उन सबको लेकर रामके पास आता है। वज्रकर्णके इस आतिथ्य सत्कारका रामके हृदय में भारी प्रभाव पड़ता है और वे लक्ष्मणको वज्रकर्णको रक्षाके लिए भेजते हैं। लक्ष्मण भरतका सेवक बनकर सिंहोदरको अक्ल ठिकाने लगाता है और उसे परास्तकर वज्रकर्णकी रक्षा करता है। अन्तमें वज्रकर्ण और सिंहोदरकी मित्रता कराकर राम लक्ष्मण आगे बढ़ते हैं। ११४-१२४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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